लक्ष्मण यादव

आज डॉ. आंबेडकर की जयंती है। अकादमिक जगत से बाहर आज आंबेडकर का ज़िक्र होते ही आम नागरिक बोध में सबसे पहले आंबेडकर की कौन सी छवियाँ उभरती हैं- इस सवाल को बतौर केस स्टडी व्यवस्थित अध्ययन किया जाना आपेक्षित है। आम भारतीय कॉमन सेंस में डॉ. आंबेडकर सायास दो खांचे बनाकर क़ैद की गई छवियों में ही याद किए जाते हैं- संविधान हाथ में लिए एक सूट बूट वाले पढे लिखे संविधानवेत्ता आंबेडकर या दलित नेता और आरक्षण वाले आंबेडकर।

क्या वाक़ई डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व-कृतित्व का दायरा इतना ही सीमित रहा, जितना एक आम भारतीय नागरिक का कॉमन सेंस जानता व स्वीकार करता है? या हक़ीक़त कुछ मुख्तलिफ़ है? राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में डॉ. आंबेडकर को क्या उतनी जगह मिल पाई, जिसके वे असल हक़दार थे? इसका एक ही जवाब है- नहीं।

राष्ट्र निर्माण के सार्वजनिक विमर्शों का अधूरापन
भारतीय ज्ञान व राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठानों ने डॉ. आंबेडकर ही नहीं, सामाजिक न्याय की पूरी विरासत व परंपरा को साज़िशन उपेक्षित व अस्वीकृत किया। डॉ. आंबेडकर को स्कूलों-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों व सार्वजनिक विमर्शों से दूर रखा गया।

इसकी दो सबसे अहम वजहें हैं- पहली यह कि डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी स्थापित वर्चस्वशाली सत्ता तंत्र की अगुआई कर रहे प्रभुवर्ग के सामने अपने सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक चिंतन के साथ एक गंभीर चुनौती पेश करती है; और दूसरी वजह सामाजिक न्याय की वैचारिकी को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े सार्वजनिक जनक्षेत्र से बेदख़ल करके क्षद्म समावेशी विमर्श को बचाए रखना है।

पहली वजह के विश्लेषण में डॉ. आंबेडकर के सम्पूर्ण, विस्तृत व्यक्तित्व को समझना होगा। छह भाषाओं के जानकार व दर्जनों डिग्रियों के साथ अपनी लेखनी से अपने अतीत व वर्तमान से वैचारिक मुठभेड़ करते आंबेडकर की सम्पूर्ण रचनाएँ आम पाठकों तक नहीं पहुँचने दी गईं। जन्म से एक शताब्दी व मरने के 33 साल बाद भारत के असल रत्न को ‘भारत रत्न’ मिला। तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने भारत रत्न देने के साथ ही आंबेडकर की सम्पूर्ण रचनाओं का व्यवस्थित प्रकाशन शुरू किया। उसके पहले आंबेडकर की लिखी हुए किताबें पुस्तकालयों, पाठ्यक्रमों व आम सार्वजनिक जगहों से नदारद थीं। सम्पूर्ण रचनाओं की सुलभता ने इस साज़िश से पर्दा उठाया। आज़ादी के कमोबेश पाँच दशक बीतने के बाद सार्वजनिक बहसों में डॉ. आंबेडकर कुछ विस्तार पा सके।

1. आंबेडकर का समाशस्त्री चिंतन– डॉ. आंबेडकर एक कुशल साजशास्त्री चिंतक थे। गोविंद सदाशिव घुर्ये से लेकर एमएस श्रीनिवास, लुई ड्यूमा जैसे अगुआ समाजशास्त्री माने जाने वाले लोगों के दशकों पहले आंबेडकर भारतीय समाज की आंतरिक विडंबनाओं व विरोधाभासों का गंभीर विश्लेषण कर चुके थे। लेकिन आंबेडकर को कभी समाजशास्त्री नहीं माना गया। ‘जाति का विनाश’, ‘भारत में जाति’ जैसे लेखों की उपेक्षा ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बहुत हद तक एकायामी बना दिया। वर्ण व्यवस्था से लेकर हिन्दू धर्म की सामाजिक-सांस्कृतिक शल्य चिकित्सा करने वाले आंबेडकर को बुद्ध से फुले तक की समृद्ध विरासत मिली, जिसे उन्होंने व्यवस्थित व मुकम्मल किया। यह पर्याप्त वजह थी, जिसने आंबेडकर को समाजशास्त्री नहीं कहलाने दिया। भारतीय समाज की तमाम अदृश्य परतों को उघाड़ने वाले चिंतक की यह उपेक्षा अनायास न रही।

2. आंबेडकर का आर्थिक राजनीतिक चिंतन– डॉ. आंबेडकर राजनीतिक विचारक के साथ अद्भुत संगठनकर्ता थे। पहला संगठन जाति पर नहीं बनाया, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई। राष्ट्र राज्य की आधुनिक बुनावट से लेकर नागरिक के अधिकार क्षेत्र की बारीक़ समझ उन्हें एक कुशल राजनीतिक चिंतक के तौर पर रचती है। ‘रुपए की समस्या’ से लेकर ‘ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास’ जैसे लेख लिखे, जिस पर चलकर आगे ‘वित्त आयोग’ की बुनियाद रखी गई। भारत में ‘श्रम ही नहीं, श्रमिकों का भी विभाजन’ की वैचारिकी वाले आंबेडकर को कभी आर्थिक चिंतक की श्रेणी में याद नहीं किया गया। 14 से 16 घंटे काम करने वाले श्रमिकों के लिए काम के 8 घंटे निर्धारित करना, लेबर प्रोटेक्शन ऐक्ट, वेतन भत्ता, ग्रेड पे, ग्रैचुअटी, पीएफ जैसे प्रावधानों के लिए क्या कभी आंबेडकर आम बहसों में याद किया जाते हैं? आंबेडकर मानते हैं कि भारत में श्रेणी ने दरिद्र और वर्ण ने दलित-अस्पृश्य पैदा किए, इसलिए हमें एक श्रेणी विहीन-वर्ण विहीन समाज बनाना होगा। ये विचार राष्ट्र निर्माण में आज भी आपेक्षित तवज्जो न पा सके।

3. आंबेडकर का नारीवादी चिंतन– ‘हिन्दू कोड बिल’ को जिन ताक़तों ने पास नहीं होने दिया, वे ही असल राष्ट्र नायक बने व बनाए गए। आज भी वे सत्ता पर अपनी हेजिमनी बनाए हुए हैं। केवल राजनीतिक सत्ता ही नहीं; धर्मसत्ता, पितृसत्ता व ज्ञानसत्ता तक यह हेजिमनी बदस्तूर क़ायम है। ये स्वघोषित राष्ट्रनियंता अपने समावेशी वैचारिक आवरण के भीतर मूलतः जाति व धर्म ही नहीं, पितृसत्ता के भी हिमायती रहे। जबकि आंबेडकर ने महिलाओं के पृथक व सशक्त वजूद से लेकर महिला श्रम तक के लिए लिखा, बोला और संघर्ष किया। ‘किसी समुदाय की प्रगति को उस समुदाय की महिलाओं की प्रगति से आँकने’ के हिमायती आंबेडकर इस बात के लिए नारीवादी विमर्शों में कितनी जगह पा सके? वुमेन लेबर वेलफ़ेयर, मातृत्व अवकाश, काम के निर्धारित घंटे, संपत्ति में अधिकार जैसे क़दम लंबे समय तक जेंडर विमर्शों से भी उपेक्षित किए गए। सवित्रिबाई फुले-फातिमा शेख़ तक को नकारने वाले ये विमर्श आंबेडकर को क्योंकर अपनाते।

4. पत्रकार आंबेडकर- मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत जैसे 6 पत्र-पत्रिकाओं को निकालने वाले आंबेडकर पत्रकारिता के लिए कभी याद न किए गए। यूं ही आंबेडकर ने नहीं कहा था कि ‘अछूतों का कोई अखबार नहीं है।

साथ ही आंबेडकर कानूनवेत्ता, संगठनकर्ता की छवियों के ज़रिए भारत के पहले अखिल भारतीय बहुजन नायक बनकर उभरते हैं। डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व के ऐसे तमाम उपेक्षित किए गए दायरे हैं, जिनसे उन्हें ख़तरा था, जो यह उपेक्षा कर सकने की स्थिति व सहूलियत कब्जाए हुए थे। इस उपेक्षा ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को भीतर से खोखला बना डाला।

सामाजिक न्याय को बतौर वैचारिकी उपेक्षित करने की वजहें
यह देश अपनी सबसे बुनियादी चुनौतियों को सार्वजनिक विमर्श से अस्वीकृत व उपेक्षित कर आगे बढ़ने की नाक़ाम कोशिशों वाले नेतृत्व की गिरफ़्त में आज भी जकड़ा हुआ है। आंबेडकर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के घनीभूत स्वर बनकर ऊभरे, जिसके चलते राष्ट्र निर्माण की महती ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर वहन करने का स्वघोषित बीड़ा उठाए वर्ग ने केवल डॉ. आंबेडकर ही नहीं, सामाजिक न्याय की समग्र वैचारिक परंपरा को ही ख़ारिज़ करने की हद तक उपेक्षित किया। ‘हिन्दू राष्ट्र को लोकतंत्र व भारत के भविष्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा’ बताने वाले आंबेडकर की उपेक्षा ने आज वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथी आत्मसातीकरण की ओर धकेल दिया।

डॉ. आंबेडकर के बहाने यह बात फिर से स्पष्ट करते चलें कि सामाजिक न्याय की वैचारिकी का विस्तार सामाजिक, आर्थिक व लैंगिक न्याय तक विस्तृत है। सामाजिक न्याय का अर्थ आरक्षण मात्र नहीं है। अन्यथा जाति के विनाश की बात करने वाले जातिवादी, अंतरजातीय विवाह से लेकर वंचितों शोषितों के ‘शिक्षित बनने, संघर्ष करने और संगठित रहने’ का ख़्वाब देखने वाले दलितों व आरक्षण के नेता बनकर न रह जाते। ऐसा करने के पीछे एक बड़ा ख़तरा यह भी देखा गया होगा कि नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद डॉ. आंबेडकर समाजवादियों व वामपंथियों के साथ बहुजनों की एका के साथ एक राजनीतिक चुनौती पेश करने का विचार कर रहे थे। अगर ऐसा होता तो ‘हार्ड हिंदुत्वा’ के साथ साथ ‘सॉफ्ट हिंदुत्वा’ की राजनीतिक व ज्ञान संस्थानों पर कब्ज़ाई हुई हेजिमनी दरक जाती।

गौतम बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, नारायण गुरु, पेरियार, बिरसा मुंडा, ज्योतिबा फुले, उस्मान शेख़, सवित्रिबाई फुले, फ़ातिमा शेख़, जयपाल सिंह मुंडा, लोहिया, रामस्वरूप वर्मा, ललई यादव, बाबू जगदेव प्रसाद, बीपी मण्डल, कांशीराम तक वर्चस्वशाली तबक़े द्वारा रूढ खाँचों में क़ैद कर दिए गए। आज भी सामाजिक न्याय की वैचारिक परंपरा की सीमित स्वीकृति ही चली आ रही है। अब यह सवाल उठाने का भी जोख़िम लेना होगा कि बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, राजेन्द्र प्रसाद जैसे तमाम रूढ़िवादी वैचारिकी वाले लोग स्वतन्त्रता संग्राम के अगुआ नायकों से होते हुए राष्ट्र निर्माता के बतौर पाठ्यक्रमों से लेकर सार्वजनिक विमर्शों में स्थापित कर दिए गए, लेकिन एक वंचित शोषित तबक़े से ताल्लुक रखने वाले विचारक, चिंतक अपनी समता, न्याय व आज़ादख्याल वैचारिकी से बावजूद अपनी जाति या क्षेत्र के नेता ही साबित क्योंकर किए गए। इसे अनायास स्वतःघटित स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में देखना इस गहरी साज़िश का हिस्सा होने से कम नहीं है। यह आज भी जारी है। यह मानसिकता सामाजिक न्याय की वैचारिकी का ही नहीं, राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के साथ सबसे घातक धोखा है। बिना इससे मुठभेड़ कर परास्त किए आंबेडकर के सपनों का भारत बनाना असंभव होगा।

संदर्भ:
डॉ. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित- धनंजय कीर
आंबेडकर: प्रबुद्ध भारत की ओर- गेल आमवेट
भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी– क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो

( लक्ष्मण यादव दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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