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आज ई. वी. रामास्वामी का जन्मदिन हैं। इन्हें दुनिया पेरियार के नाम से जानती हैं। जनता ने ई. वी. रामास्वामी को पेरियार (सम्मानित व्यक्ति) की पदवी दी क्योंकि वो खुद सत्ता की राजनीति से दूर रहे। लेकिन दक्षिण भारत की राजनीति आज भी उनके विचारधारा की धुरी पर चक्कर काट रही है।

पेरियार ने अपने आंदोलन की शुरूआत तो गांधीवादी विचारधारा के साथ की लेकिन कांग्रेस की हिपोक्रेसी ने उनका मोह भंग कर दिया। फिर पेरियार का झुकाव कम्युनिस्ट आदर्शों की तरफ हुआ। इतना ज्यादा हुआ कि उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र का पहला तमिल अनुवाद प्रकाशित कर दिया।

आज पेरियार की विचारधार को तमाम वामपंथी, दलित आंदोलनकारी, तर्कवादी और नारीवादी अपने लड़ाई का हिस्सा मानते हैं। बिना पेरियार के पार लगना मुश्किल है। क्योंकि पेरियार की पहचान ही तर्कवादी, समतावादी, नारीवादी, धर्म और भगवान विरोधी, जाति और पितृसत्ता के विध्वंसक के रूप में है।

जातिवाद पर पेरियार कहते हैं- ‘सभी मनुष्य समान रूप से पैदा हुए हैं तो फिर अकेले ब्राह्मण उच्च व अन्य को नीच कैसे ठहराया जा सकता है?’

ब्राह्मणवाद पर पेरियार कहते हैं- ‘ब्राह्मणों ने हमें शास्त्रों ओर पुराणों की सहायता से गुलाम बनाया है। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मंदिर, ईश्वर और देवी-देवताओं की रचना की।’

नास्तिकता पर पेरियार कहते हैं- ‘ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास की जरुरत पड़ती है. ये स्थिति उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो’

पेरियार ने कई लेख और किताबे लिखी उन्हीं में से एक है ”सच्ची रामायण”। तमिल में लिखी उनकी यह किताब राम सहित रामायाण के सभी नायकों को खलनायकों के रूप में प्रदर्शित करती है। तथ्यात्मक रूप में पेरियार अपनी रचना में सफल होते हैं।

पेरियार की ‘सच्ची रामायण’ का हिंदी में ललई सिंह यादव ने अनुवाद किया मगर 1969 में विवाद होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इसपर प्रतिबन्ध लगा जब्त कर लिया। इसके प्रत्युत्तर में ललई सिंह यादव ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जहां न्यायालय ने प्रतिबन्ध हटा दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और उसने भी हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा।

पेरियार ने अपने नास्तिक आन्दोलन के दौरान कई हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों को तोड़ा। उस वक्त का एक कार्टून बहुत चर्चा में रहा जिसमें दिखाया गया कि कैसे पेरियार चप्पल से राम की मूर्ति को पीट रहे हैं।

द्राविडियन मूवमेंट के दौरान पेरियार ने उन सभी प्रतीकात्मक विरोध का इस्तेमाल किया जिससे जनता के मानस से हिंदी और हिंदू की श्रेष्ठता का पर्दा हटाया जा सके।

उनके इस मूवमेंट से सहमत होना या न होना लोगों की निजी पसंद हो सकती है लेकिन सवाल उठता है कि आजकल के इस माहौल में अगर कोई पेरियार की तरह बेख़ौफ़ होकर धर्म-कर्मकांडों का ऐसे विरोध करे तो वो सुरक्षित रह सकेगा ?

जब गौरी लंकेश, कलबुर्गी , पंसारे जैसे तार्किक विद्वानों की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी जा रही हो कि वो कुरीतियों और कट्टरता पर सवाल उठाते हैं तो इस दौर में किसी का पेरियार हो पाना असंभव जैसा लगने लगता है।

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