राघवेंद्र शुक्ला

बात करे भी कैसे कोई? तार लगे हैं।
बांध दिया मुंह जैसे कोई, तार लगे हैं।

प्रश्न उठाना क्या है? क्या सब साफ नहीं?
घुली हवा में ही साज़िश की गंध, कवी!
जूता-लाठी, कंकड़-पत्थर बांच रहे हैं
सड़े कमल की सड़ी हुई दुर्गन्ध, कवी!

पत्तों-पत्तों पर भी पहरा है, खड़के न
डरा हुआ है ऐसे कोई, तार लगे हैं।

ऐलान हुआ है, जन-गण-मन आज़ाद नहीं
सीमित होना है भौगोलिक सीमाओं में
अपराध सत्य है, सत्ता का गुणगान ज्ञान
‘चाणक्य नीति’ सिमटी छिछली चकमाओं में।

बाहर-बाहर बड़ी सुरक्षा, भीतर तरु को
दीमक चाटे जैसे कोई, तार लगे हैं।

तारों से क्या-क्या रोक सकोगे? हे राजन!
तारों पर वीणा बजती है, सुर सजते हैं।
अभिमत्त देवेशों के विरुद्ध, गिरि गोवर्धन
प्रतिरोध-गीत के स्वर बनते हैं, बजते हैं।

डर छोड़ा-घर छोड़ा, चुप्पी तोड़ दिया है
ध्यान करे फिर कैसे कोई? तार लगे हैं।

कवि! तुम कविता करो, लाठियां चलने दो।
दीये बुझते रहें, देश को जलने दो।
अभिमान तुष्ट हो, बलिदानों का खेल चले
नृप सशक्त है, क्यों अपनी वाणी से टले?

निर्बल अतीत के वीर! उचारो मन ही मन
तख्तों तक जाए कैसे कोई, तार लगे हैं।

– कविता : राघवेंद्र शुक्ला

– तस्वीर : अवंतिका तिवारी

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