ग़रीबों और मज़दूरों की दुर्दशा देख़ कई दिनों से विचलित सा हूँ। शायद ऐसा जाने-अनजाने विगत 44 दिनों से लगातार हज़ारों श्रमिकों के संपर्क में होने से एक भावनात्मक जुड़ाव के कारण भी हो सकता है । एक तरफ़ बेबसी कचोटती है तो दूसरी तरफ़ करुणा की सुनामी भी चैन से नहीं बैठने देती।

नीचे खेत-खलिहान और फ़ैक्ट्रियों में खड़े मेहनतकश कौमों के श्रमशील योद्धाओं को अपने पसीने से सूर्य की तपिश बुझाते देखता हूँ और उसी क्षण ऊपर पूँजीपतियों के साथ खड़ी सरकारों और श्रमवीरों का खून चूसने वाली नीतियों को देखता हूँ तो समाजवादी भावनाएँ उफ़ान मारती है।

महसूस करता हूँ कि दिन-ब-दिन लोगों की संवेदनाएँ और मानवीयता मरती जा रही है। हम मशीनी और पत्थर दिल होते जा रहे है। समाज में ऐसा ज़हरीला वातावरण बना दिया गया है कि इंसानियत को भुला हर चीज़ को धर्म के तराज़ू पर तौला जा रहा है।

जब उन कट्टर धर्मांधों को उन्हीं के धर्म के भूखे मरते ग़रीबों की लाशों से मुँह फेरते देखता हूँ तो मन करता है कि उन्हें कहूँ कि जा,” अब अपने धर्म का ध्वज इन ग़रीबों की भूखी आंतड़ियों में गाड़ दें। यही तुम्हारी विजय पताका है।

और हाँ! अपनी आने वाली नस्लों को बता देना जब महामारी के दौर में देश के करोड़ों ग़रीब लोग सरकारी असंवेदनशीलता का शिकार होकर भूखे मर रहे थे। सड़क और रेल पटरियों पर कुचले जा रहे थे तब हम इंसानियत के चिथड़े-चिथड़े कर धर्म की आड़ में अपनी नाकामियों को छुपाने वाली नकारा सरकार के साथ खड़े थे।

बहरहाल, कर्म की मार से ना कोई भी नहीं बचा है। देर-सवेर सबका लेखा-जोखा लिया जाएगा।

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