क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने देश की जनता की “केयर” करते हैं? या फिर वो जनता के एक ख़ास वर्गमात्र की “केयर” करते हैं- जो इन मज़दूरों की तरह सड़कों पर भूखा-प्यासा निकलने को मजबूर नहीं है? शायद वो उस वर्ग की ही “केयर” करते हैं जो ट्रेन से नहीं बल्कि प्लेन से सफ़र करना पसंद करता है।
औरंगाबाद में 16 मज़दूरों की मौत को सोशल मीडिया पर कई लोग हादसा नहीं, मर्डर बता रहे हैं। ये एक ऐसा “मर्डर” है जिसकी प्लानिंग पिछले कईं दिनों से की जा रही थी। इसके पीछे जाने-अनजाने में हमारी सरकार का हाथ है।
ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले 50 दिनों से लगातार ऐसी वीडियो आ रही थीं जिसमें प्रवासी मज़दूर अपने घर जाने के लिए संघर्ष करते दिख रहे थे। इतने दिनों से इन मज़दूरों की पीड़ा को अनदेखा करना, सरकार पर कई सवाल खड़े करता है। जिन मज़दूरों को औरंगाबाद में अपनी जान खोनी पड़ी, वो भी इसी अनदेखी का शिकार हुए हैं जिसे सोशल मीडिया पर हादसे के बजाए मर्डर बताया जा रहा है।
This government has blood of Labourers on its hands.
The roties lying on the track says the sorry state which forced the Labourers to walk hundreds of miles.
This is not an accident but a man made disaster. Supreme leader is on television to shead crocodile tears. #Aurangabad pic.twitter.com/vfJVw6hHMa
— Owais (@Al_Owais92) May 8, 2020
दरअसल, औरंगाबाद में 16 मज़दूर रेल की पटरी पर सो रहे थे। सुबह एक मालगाड़ी इनके शरीर को चीरते रौंदते हुए चली जाती है। ये मज़ूदर रेल की पटरी पर क्यों सोए थे? अधिकारी जवाब देते हैं कि ये मध्य प्रदेश जा रहे थे, अपने घर जा रहे थे। शरीर तोड़ देने वाली थकान के कारण मज़दूर पटरी पर सो गए। इस थकान से शुरू हुई तकलीफ़, शरीर चीर देने वाली ट्रेन पर आकर ख़त्म हुई।
लेकिन क्या लॉकडाउन में ऐसा पहली बार हुआ है जब मज़दूर पैदल चलते-चलते थक गए हों? क्या ऐसा पहली बार हुआ है जब उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी हो? जवाब है- नहीं।
उत्तर प्रदेश के लखनऊ में श्रमिकों पर सैनिटाइजर छिड़का जा रहा था, ये सैनिटाइजर विमान से आ रहे किसी अमीर पर नहीं छिड़का गया। 6 मई को ट्विटर पर मनीष पांडेय ने इस घटना की वीडियो शेयर की थी जिसे देखने से साफ़ पता चलता है कि सरकार मज़दूरों को इंसान ही नहीं समझ रही है।
ठीक इसी तरह कुछ दिन पहले श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में मज़दूरों से टिकट का किराया लेने की तस्वीरें आ रही थीं। लेकिन विदेश से विमान में आ रहे ‘अमीरों’ से किसी तरह का किराया नहीं वसूला जा रहा था।
न्यूज़ मिनट पर 1 मई को ख़बर छपती है कि एक 26 वर्षीय प्रवासी मज़दूर की 100 किलोमीटर चलने से मौत हो गई। इस मज़दूर ने बेंगलुरु से आंध्र प्रदेश तक की दूरी तय कर ली थी, वो अपने घर पहुंच गया था। वो इस पूंजीवादी व्यवस्था से तो लड़ लिया, लेकिन 100 किलोमीटर की यात्रा से हुई थकान से नहीं लड़ पाया।
सरकार ने राशन पहुंचाने के वादे किए, इस काम के लिए फंड भी जारी किया। लेकिन भाषण में वादे करने और ज़मीन पर लागू होने में बहुत फ़र्क है। नतीजा ये था कि मज़दूरों को सड़कों पर निकलना पड़ा, पैदल सेकड़ों किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ा।
उदहारण अनेक है, और निष्कर्ष सिर्फ़ एक। सरकार के सामने मज़दूरों के हालात थे। सरकार ने मज़दूरों की मदद नहीं की, जिसकी वजह से औरंगाबाद के 16 मज़दूरों समेत दूसरों को भी अपनी जान गवानी पड़ी। शायद इसलिए सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं कि औरंगाबाद में हादसा नहीं, “मर्डर” हुआ है!