ऐश्वर्या राज 

भेड़-बकरियों की तरह ट्रेनों में लदकर हर साल आते थे वे महानगर,
उनके हाँथ कंस्ट्रक्शन साइट्स पर हथौड़े और पैर भाड़े के रिक्शों के पैडल पर ऐसे टिकते
मानों उन्हें इन लोगों के बदन से जोड़ा गया था ‘ग़ुलामी’ लिखकर।

उनके पैतृक गाँव में लोग लगाने लगे हैं उनके नामों के आगे एक नया शब्द
जैसे ‘विनोद’ हो जाता है ‘बम्बई वाला विनोद’,
विनोद की घरवाली अब उससे लौटने को नहीं कहती है बार-बार
उसकी सकुशलता प्रमाणित होती है हर महीने डाक से आते रुपयों से,
“बाउजी बम्बई रहते हैं न” सुनते हुए एक रोज़ दो साल से दस साल का हो जाता है उसका लड़का
और मिट्टी के घर में पक्के का हो जाता है एक कमरा।

एक बार महानगरों में तूफ़ान आया,
किसी ने कहा ‘उन्हें’ निकाल रहे हैं,
किसी ने कहा दुनिया पर महामारी छायी है, घर लौट चलो,
कोई खुश हुआ कि अब अगला परब अपने ‘देश’ में मनेगा,
किसी को जल्दीबाजी थी सुना था गोतिया हड़पने लगा है उसकी बची-बाकी ज़मीन।

अखबार ‘सावधान रहें’ के शीर्षकों से भर रहते थे,
सरकारें चुप थी, अमीर भयभीत और ऊबे हुए,
सभी को घरों में रहने कहा गया,
महानगर से एक जत्था निकला हांथों में मोटरी और अपने घरों का पता लेकर।

कुछ लोग अपना अस्तित्व खोजते हुए,
महानगर और गाँव के बीच कट गए पटरियों पर भेड़-बकरियों की तरह।

पड़ोसियों ने खूब खपाया अखबारों में माथा,
मरने वाले की सूची में कहीं नहीं था उसका नाम,
‘बम्बई वाला विनोद’ लापता हो गया।
ताज़्जुब है कि उन्हें नहीं मालूम
महानगर विनोद और उसके साथियों का नामकरण कर चुकी थी सालों पहले,
सभी नामों के बदले रह गया एक शब्द, ‘बिहारी’।

अब ये बात केवल बम्बई(महानगरों) और सरकारों को पता थी,
अखबारों ने उन्हें ‘इंसानी शक्ल के भेड़-बकरी’ लिखा
मामला रफ़ादफा किया गया।

(ऐश्वर्या राज दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में दर्शनशास्त्र की छात्रा हैं)

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