कृष्णकांत

पहले पूछा गया था कि 70 सालों में क्या हुआ. फिर कहा गया कि 70 सालों में कुछ नहीं हुआ. कम से कम पार्टी समर्थकों ने इस प्रहसन पर भरोसा किया और वे भी पूछने लगे कि 70 सालों में क्या हुआ.

इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आसपास की उम्र के हैं, जो गांव से शहर आए हैं, जिन्होंने अपनी आंखों से गरीबी का दौर देखा था, जिन्होंने देखा था कि कैसे गांव के लोग नंगे बदन रहकर, रोटी नमक खाकर उम्र काटते थे, जिन्होंने देखा था कि कैसे उनके पूर्वज एक धोती में, आधी लांग बांधकर और आधी से बदन ढंककर जिंदगी गुजारते थे, उन्हें भी वह दौर गुजर जाने का भरोसा नहीं हुआ.

उन्हें अपना बदन ढंक जाने का भरोसा नहीं हुआ. उनकी प्र​गति की आकांक्षा जायज थी, लेकिन उन्होंने पिछला सब नकार दिया. उन्हें पेट भर अनाज पर दिन भर खटने वाले मजदूरों को 200 रुपये दिहाड़ी मिलने का विश्वास नहीं ​हो रहा था. लोग ये कहानी भूल गए कि कभी पेट भर अनाज ​के लिए दूसरे के आगे हाथ फैलाने वाला देश, तमाम विसंगतियों के साथ ही सही, अब तक आत्मनिर्भर हो चुका था.

70 साल का सवाल पूछते पूछते वे सारे धतकरम किए गए जो 70 साल में कभी नहीं किए गए थे. नारे और भाषणों में प्रगति का कीर्तिमान कायम करने वाली सरकार ने मीडिया मैनेजमेंट के जरिये ऐसी छवि बना डाली कि जैसे अब तक दीन हीन रहा भारत अब अचानक विश्वगुरु बनने जा रहा हो और ये संभव है नये नेतृत्व के कारण.

सरकार ने अपने फैसलों से जनता को मुसीबत में डाला और छवि निर्माण ऐसे किया कि देश का पुनर्निमाण हो रहा है. जो बेहद बुरा हुआ, उसे भी बेहद अच्छा बनाकर पेश किया गया. जनता ने उसपर भी भरोसा किया.

संस्थाओं को कब्जे में लेने, उनकी स्वायत्ता समाप्त करने से लेकर ‘मीडिया को खरीद’ लेने तक को सकारात्मक बदलाव के तौर पर ​पेश किया गया. लेकिन झूठ के इस कारोबार में विकास की वह स्वाभाविक गति भी बाधित हो गई. भारत अपनी विकास यात्रा में ऐतिहासिक रूप से 50 साल पीछे जा खड़ा हुआ.

लोकतंत्र में मीडिया मैनेजमेंट एक बुरी आदत है. यह वास्तविक लोकतंत्र को भंग करके ही संभव है. लेकिन हमारी सरकार लोकतंत्र के दमन के इस रास्ते पर तेजी से बढ़ रही है और अब इसको इसकी लत लग गई है.

मीडिया मैनेजमेंट के जरिये नोटबंदी जैसे विध्वंस को भविष्य की नींव साबित कर दिया गया. जीएसटी को ऐतिहासिक सुधार साबित कर दिया गया.

नोटबंदी से हुए नुकसान को पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी का प्रवेश द्वार साबित किया गया. आरटीआई, लोकपाल, प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट जैसे अच्छे कानूनों को बदलकर इन संस्थाओं को पिंजरे का तोता बनाया गया और मीडिया ने इसमें सकारात्मकता खोजी. कोरोना महामारी में बिना योजना के लॉकडाउन लागू करके करोड़ों को बेरोजगार किया गया और उसे निजी तौर पर नरेंद्र मोदी की सफलता बताई गई.

महामारी के दौरान कृषि कानून लागू किया गया, किसानों की बात सुने बिना उनके विरोध को विदेशी साजिश करार दिया गया. मजदूर कानूनों को बदलकर कॉरपोरेट के पक्ष में कर दिया गया और इसे सुधार कहा गया. यह सब मीडिया मैनेजमेंट का कमाल रहा.

लेकिन ये क​ब तक चलेगा? कोरोना की नई लहर ने लाखों लाख लोगों की जान संकट में डाल दी है. मीडिया मैनेजमेंट से लोगों की जान नहीं बचने वाली.

मीडिया मैनेजमेंट की कोशिश अब भी पूरी है, लेकिन जिन्हें आक्सीजन चाहिए, उन्हें किसी एंकर के सकारात्मकता के प्रवचन से कोई फर्क नहीं पड़ता. सरकार को लत लगी है तो अब भी मीडिया मैनेजमेंट की नाकाम कोशिश कर रही है.

सोशल मीडिया पर हर दूसरा अकाउंट मदद मांग रहा है. लोगों को जान बचाने के लाले पड़े हैं. एक साल में महामारी से निपटने की कोई तैयारी न करने का नतीजा ये है कि आज हजारों ऐसे लोग मारे जा रहे हैं जो थोड़ी सी मेडिकल सहायता पाकर बच सकते थे.

अब मीडिया मैनेजमेंट के जरिये लोगों की धारणा बदल देने का खेल खराब हो रहा है. एक चीनी कहावत है कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन सब लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बना सकते.

कम से कम जिनके परिवार बर्बाद हो रहे हैं, अब वे पूछ सकते हैं कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ था तो 7 साल में ही क्या हो गया? हमारे जीवन का मोल तब भी नहीं था, हमारे जीवन का मोल अब भी वही रह गया.

(यह लेख पत्रकार कृष्णकांत की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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