कृष्णकांत

कल गणतंत्र दिवस के मौके पर किसानों के ऐतिहासिक मार्च के दौरान हुई कुछ अप्रिय घटनाओं को आधार बनाकर मीडिया ने किसानों के खिलाफ एकतरफा मुहिम छेड़ दी है।

प्रदर्शनकारी किसानों को हिंसक बताने की साजिश के तहत स्पेशल प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं, विशेष लेख लिखे जा रहे हैं।

हालांकि गोदी मीडिया की इन कोशिशों को सोशल मीडिया पर चुनौती मिल रही है जिसकी मिसाल है पत्रकार कृष्णकांत का ये लेख, जिसमें वह सवाल कर रहे हैं कि प्रदर्शनकारी किसानों की मौत हो या फिर कर्ज में दबे किसानों की आत्महत्या क्या ये हिंसा नहीं है?

पढ़ें लेख-

हिंसा वह भी है जब 150 से ज्यादा लोग मर गए लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. हिंसा वह भी है जब छह महीने से लाखों लोगों को सुनने इनकार किया जा रहा है.

हिंसा वह भी थी जब सत्ता के चमकदार चमचे 90 साल की बूढी़ महिला को ‘पेशेवर’ प्रदर्शनकारी बता रहे थे.

हिंसा वह भी थी जब शांतिपूर्ण ढंग से बैठे लोगों को ‘खालिस्तानी’ कहा गया. हिंसा वह भी थी जब बुजुर्ग किसानों को फर्जी किसान बताया गया. हिंसा वह भी थी जब पुलिस ने किसानों का रास्ता रोकने के लिए सड़कें खोद डाली थीं.

अराजकता वह भी थी जब कोरोना लॉकडाउन में चोर दरवाजे से विवादित कानून लागू किए. हिंसा वह भी है जब देश के सारे संसाधन दो-चार लोगों को सौंपने के लिए सरकार अपनी जनता को आतंकवादी बता सकती है लेकिन उनका डर नहीं समझ सकती.

हिंसा वह भी है जब हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं और सरकार उन पर ध्यान तक नहीं देती. हिंसा वह भी है कि अब तक साढ़े तीन लाख आत्महत्या कर चुके हैं.

हिंसा वह भी है कि सरकार कॉरपोरेट का लाखों करोड़ चुपके से माफ कर देती है लेकिन किसान कर्ज ले ले तो उसे आत्महत्या करनी पड़ती है.

हिंसा वह भी है जब पुलिस और खुफिया एजेंसियों को पहले से मालूम था कि गड़बड़ी हो सकती है, फिर भी सवाल सिर्फ किसानों से किया जा रहा है.

हिंसा के तमाम रूप हैं, असल मुद्दा ये है कि आप कौन सी हिंसा को पहचान पाते हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here