संजय यादव

कोई विदेशी व्यक्तिगत हैसियत से अथवा कोई एनजीओ बनाकर प्रधानमंत्री को कोई भी कथित एबीसी अवार्ड देने की घोषणा करता है या कोई ट्वीट ही कर देता है।

तो यहाँ की गोदी मीडिया और भक्तगण लहालोट हो जाते है। बड़े साहब खुद पूरी गैंग के साथ हल्ला मचाते है।

वैसे ही कोई विदेशी अगर किसी आंदोलन के पक्ष में स्वतंत्र रूप से अपनी राय रखता है तो यही लोग उस पर बवाल काटने लगते है।

विदेश मंत्रालय को किसी इंडिविजूअल के ट्वीट पर सफाई देनी पड़ती है। ऐसा दोहरापन और डर क्यों?

विदेश में सर्दी, खांसी जुकाम या तूफ़ान से किसी को कुछ होता है तो हमारे वाले सबसे पहले कूदते है।

कुछ दिन पहले अमेरिका में एक अश्वेत “जॉर्ज फ्लॉयड” की उनके आंतरिक मामलों को लेकर हत्या हुई तो यही लोग उसकी कड़ी निंदा कर रहे थे।

अमेरिका के कैपिटल हिल में उपद्रव की घटनाओं को लेकर ज्ञान दे रहे थे। हमारी विदेश नीति को धत्ता बताकर हमारे ही खर्चे पर अमेरिका में जाकर वहाँ के राष्ट्रपति के लिए चुनाव प्रचार कार्यक्रम “हाऊड़ी मोदी” कर “अबकी बार ट्रंप सरकार” जैसे नारे लगा सकते हैं।

लेकिन ये अलोकतांत्रिक लोग किसी विदेशी को इस बात की इजाज़त नहीं देते कि वह भारत में लाखों लोगों द्वारा महीनों से किए जा रहे विरोध प्रदर्शन की घटनाओं का समर्थन या विरोध करे।

लोकतंत्र की बहाली या सुनिश्चितता, किसानों, छात्रों और बेरोजगारों के आंदोलन कमोबेश विश्वभर में एक जैसे ही होते है। उनका अगर कोई वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक समर्थन-विरोध करता है तो उसका आँकलन करना चाहिए।

अगर कोई भारतीय अथवा भारतीय मूल का व्यक्ति किसी देश की समृद्ध और खुली लोकतांत्रिक प्रणाली की बदौलत वहाँ का राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, सांसद, मंत्री बनता है तो ये लोग ख़ुशियाँ मनाते है।

अगर किसी विदेशी मूल का व्यक्ति यहाँ चुनाव भी लड़ता है तो इनकी छाती पर सांप लौटता है।

घृणित और तंगदिल सोच के ये विभाजनकारी लोग ही देश नहीं है। ये अपने विचार किसी पर थोप नहीं सकते।

(ये लेख राजनीतिक रणनीतिकार संजय यादव की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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