असम पुलिस के पाँच जवानों की मौत हुई है। पुलिस के दो बड़े अधिकारी घायल हैं। इस सूचना के आने के दो दिन बीत जाने के बाद भी गृहमंत्री अमित शाह का कोई सार्वजनिक बयान नहीं है। मारे गए जवानों के प्रति श्रद्धांजलि के दो शब्द नहीं है।

अपने भाषणों में हर समय मज़बूत और सख़्त नेता दिखने वाले गृहमंत्री संकट और जवाबदेही के ऐसे लम्हों में सुन्न हो जाते हैं। उनके बयान सुनाई नहीं देते हैं। दूसरी लहर के दौरान जब भारतीयों का नरसंहार हो रहा था तब गृहमंत्री के बयान भी आक्सीजन की तरह कम पड़ गए थे।

जबकि आपदा प्रबंधन एक्ट उनके ही मंत्रालय के तहत संचालित होता है। सारे विभागों से ताल-मेल कर बंदोबस्त की ज़िम्मेदारी गृह सचिव की होती है। ख़ैर।

असम और मिज़ोरम के बीच जो हुआ है उसे लेकर असम पीड़ित की तरह बर्ताव कर रहा है। ज़ाहिर है उसके पाँच जवान मारे गए हैं। असम के मुख्यमंत्री ललकार भी रहे हैं कि हम अपनी एक ईंच ज़मीन नहीं देंगे जैसे किसी दूसरे देश को देनी है।

कह रहे हैं कि मिज़ोरम की सीमा पर हज़ारों कमांडो तैनात करेंगे। इतने कमांडो हैं भी या नहीं किसी को पता नहीं लेकिन 4000 कमांडो तैनात करने की बात कर रहे हैं।

जब नागरिकता क़ानून लाना था तब देश में किस तरह का माहौल पैदा किया गया। उस समय के गृहमंत्री के भाषणों को निकाल कर देखिए। इस क़ानून का विरोध कर रहे लोगों पर गोलियाँ चलवाई गईं। पटना में दंगाइयों को भेज कर प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई गई। लोग मारे गए और कई राज्यों में पुलिस ने भयंकर ज़ुल्म किए।

इस क़ानून के सहारे तरह तरह की भ्रामक बातें राष्ट्रवाद के नाम पर जनता के बीच ठेल दी गईं। ऐसा लग रहा था कि इस क़ानून को लागू होना अभी और इसी घंटे बहुत ज़रूरी है।

दो साल हो गए हैं। अभी तक सरकार इस क़ानून के नियम नहीं बना सकी है। ये हाल है सरकार के काम करने का। बहस पैदा करने के लिए क़ानून लाओ और जब उल्टा पड़ जाए तो क़ानून को लागू करने में टाल-मटोल करते रहो।

जब असम में उल्टा पड़ गया तो चुनाव में इसका नाम तक नहीं लिया गया। जबकि नागरिकता क़ानून उसी असम के नाम पर लाया गया और इसे लाने के बाद हो रहे पहले चुनाव में ही बीजेपी इसका ज़िक्र नहीं कर सकी जबकि दिल्ली की बहसों में इस क़ानून को ऐतिहासिक बता रही थी। दो साल हो गए हैं नियम नहीं बने हैं। गृहमंत्री जवाबदेही के हर सवाल से मुक्त हैं।

पता चलता है कि सरकार कैसे काम करती है। क़ानून बनाने से पहले इसकी जटिलताएँ के बारे में नहीं सोचती है। सरकार को यह अंदाज़ा क्यों नहीं हुआ कि इस क़ानून से असम और पूर्वोत्तर में क्या प्रतिक्रिया होगी? अब कहा जा रहा है कि असम मिज़ोरम सीमा विवाद की जड़ में यह क़ानून भी है।

इसे लेकर आशंकाएँ भी हैं। इससे पता चलता है कि सरकार को डिबेट चाहिए क्योंकि डिबेट के दौरान ही भाषण का स्वर ऊँचा होता है। राष्ट्रवाद का शोर पैदा कर सांप्रदायिक एजेंडा जनमानस में ठेल दिया जाता है। जब वह एजेंडा पहुँच जाता है तब क़ानून का पता नहीं चलता।

आख़िर सरकार अब क्यों नहीं दम के साथ कहती है कि हम यह क़ानून असम में लागू करने जा रहे हैं। क्या वह भी तुष्टिकरण करने लगी है? कब तक सरकार इसके नियमों को नहीं बनाएगी? जिसके लिए उसने तमाम सवालों को कुचल दिया। लोगों की आशंकाओं को कुचल दिया।

ऐसा समाँ बांधा जैसे सरकार ही सही सोच रही है लेकिन जब अपनी ज़िद पूरी कर ली तब उसे ऐसा क्या दिखाई देने लगा है जिसके कारण नागरिकता क़ानून की बात बंद हो गई है।

संसदीय नियमों के अनुसार क़ानून लागू होने के छह महीने के भीतर नियम बनाने होते हैं। 10.1.2020 से यह क़ानून प्रभावी हो चुका है लेकिन डेढ़ साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी नियम नहीं बने हैं।

अब सरकार ने 9 जनवरी 2022 तक का समय माँगा है। पहले अप्रैल तक था, फिर बढ़ाकर जुलाई किया गया और अब जनवरी कर दिया गया है। सरकार पाँच बार अतिरिक्त समय माँग चुकी है।

गृहमंत्री अमित शाह जवाबदेही से मुक्त गृहमंत्री हैं। शिवराज पाटिल ही आख़िरी गृहमंत्री थे जिन पर जवाबदेही लागू होती थी। एक समुदाय विशेष को ललकारना हो तब आप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के तेवर देखिए। कपड़ों से पहचानने की ललकार हो या करंट लगने की हुंकार। भाषा तुरंत बदल जाती है।

लेकिन जब रफ़ाल का मामला आता है, पेगासस का मामला आता है, रोज़गार का मामला आता है, तब चुप हो जाते हैं। लगता ही नहीं है कि भाषण देने आता है।

प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सड़क दुर्घटना से लेकर बादल फटने की घटना पर शोक व्यक्त करते हैं लेकिन असम के पाँच पुलिस के जवाब मारे गए हैं उस पर एक शब्द नहीं बोल पाते।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here