Narendra Modi

आपको यह जानकर हैरत होगी कि पिछले एक महीने में पूरे देश के भीतर कोरोना संक्रमण को कम करने के लिए कोई काम नहीं हुआ।

24 जून को भारत में कोरोना मामलों के दोगुने होने की रफ्तार 19 दिन थी। 24 जुलाई को यह 21 दिन है। यानी बहुत मामूली फ़र्क़ पड़ा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जुलाई को कहा कि कोरोना के मामले में भारत दुनिया के 213 देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है और दुनिया हमारी तारीफ़ कर रही है।

मुझे मोदी के इन बयानों पर आजकल हैरत नहीं होती। कल तक जिन्हें मैं ज्ञानी-ध्यानी मानता था, वे भी अब मुझे इसी तरह की फ़िज़ूल बातें लिखकर भेज देते हैं।

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट पढ़िए। इसमें लिखा है कि कोविड 19 के भारत में भागने की रफ़्तार दुनिया में सबसे तेज़ है। भक्त इस पर गर्व कर सकते हैं, मैं नहीं। रिपोर्ट यह भी लिखता है कि प्रति 1000 लोगों में कोरोना की जांच दर भारत में सबसे कम यानी 11.8 है। अमेरिका में यह 153 और रूस में 184 है।

अगर किसी को ये आंकड़े समझ नहीं आ रहे हों तो आसान शब्दों में समझें कि भारत को अमेरिका/रूस की जांच दर को छूने में अभी 6 महीने से ज़्यादा लगने वाले हैं।

टेस्टिंग के मामले में ब्राज़ील हमसे थोड़ा ही आगे है (11.93)। फिर भी वहां डबलिंग रेट 33 दिन की है।

दिल्ली में हुए सेरो सर्वे को लें। इसमें हर चौथे व्यक्ति में कोरोना प्रतिरोधी एंटीबाडी मिली। यानी 70 लाख संक्रमण और 10 लाख गंभीर मरीज़। लेकिन क्या दिल्ली में इतने गंभीर मरीज़ हैं?

साफ़ है कि हर कोविड संक्रमित की पहचान के साथ ही 65 संभावित संक्रमण को छोड़ दिया गया। यही तमाशा पूरे देश में हो रहा है।

अब अगर सरकारों के इस दावे को परखें कि भारत में कोविड से सबसे कम मौतें हो रही हैं, तो यह भी एक साजिश है।

ICMR ने कोविड से मौत को दर्ज करने की स्पष्ट गाइडलाइन जारी की हुई है। लेकिन राज्यों में मौत के आंकड़ों को कम करने के लिए कैंसर, टीबी, किडनी फेल, हार्ट अटैक जैसे कई बहाने गढ़े जाते हैं।

यह सब इसलिए, ताकि देश में एक चेहरा चमकता रहे और राज्यों में नेताओं की कुर्सी बची रहे।

यह तमाशा आगे भी चलता रहेगा। फिर टीका आएगा। उस पर भी सियासत होगी। मोडर्ना ने अपने टीके की कीमत 50-60$ रखी है। दो खुराक के 100$ यानी लगभग 8000 रुपये।

एस्ट्रा जेंका और कोवाक्सीन के टीके की कीमत नहीं पता। शायद 6-7 हज़ार का मिलेगा।

ग़रीबों को कैसे मिलेगा? मोदी शायद इसके लिए भी लोन की EMI बांध दें।

महामारी विज्ञान का एक सामाजिक पक्ष भी होता है। भारत में ज़्यादातर विशेषज्ञ इस पर बात नहीं करना चाहते, क्योंकि तब उन्हें ग़रीबी, जातिगत भेदभाव, वर्ग संघर्ष, लिंगभेद और धार्मिक भेदभाव को भी देखना-समझना होगा।

लेकिन भारत जैसे देश में जन स्वास्थ्य के नीति-निर्धारण और अमल के लिए यह ज़रूरी है।

साथ ही हाथ में माइक लिए अपना चेहरा चमकाने के शौकीन पत्रकारों को भी जन स्वास्थ्य के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पहलुओं को पढ़कर ही तर्क देना चाहिए।

(ये लेख पत्रकार सौमित्रा रॉय के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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