सुप्रीम कोर्ट के जज रहे अरुण मिश्रा को अब राष्ट्रीय मानवाधिकार का अध्यक्ष बना दिया गया है, जिसपर सोशल मीडिया पर तमाम प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।

हजारों की संख्या में लोग उनका इसलिए भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि रिकॉर्ड देखने पर पता चलता है कि वो दलित पिछड़े वंचित तबके के खिलाफ काम करते रहे हैं।

इसी सिलसिले में ट्वीट करते हुए पत्रकार दिलीप मंडल लिखते हैं- मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ चार्जशीट- “अरुण मिश्रा ने दिल्ली में रेलवे लाइन के किनारे रह रहे 48000 परिवारों के घरों पर बुलडोज़र चलाने का आदेश पारित किया। जबकि क़ानून कहता है कि इसके लिए पहले नोटिस देना होता है। #मानवाधिकार_का_हत्यारा_मिश्रा

सामाजिक न्याय के विरोध में खड़े होने के अलावा जस्टिस अरुण मिश्रा के एक दूसरे पहलू को भी सामने लाते हुए विक्रम सिंह चौहान लिखते हैं-

अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाकर मोदी ने अपना लंगोट भी निकाल फेंका है. उन्होंने बता दिया है संघी देश के संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद करने के लिए किस हद तक नंगे हो सकते हैं. ये नंगापन ही मोदी का असली चेहरा है.

अरुण मिश्रा को मोदी ही जुलाई 2014 में कॉलेजियम के सहारे सुप्रीम कोर्ट लेकर आये थे. उससे पहले तीन बार उन्हें मनमोहन सिंह सरकार की अनिच्छा पर सुप्रीम कोर्ट रिजेक्ट कर चुका था. उनकी योग्यता यही थी कि वे मोदी,अडानी और संघ के खास थे और हैं.

अरुण मिश्रा वही आदमी हैं जिसने 2015 में संजीव भट्ट की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें 2002 में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए गुजरात दंगों की जांच को फिर से खोले जाने के लिए अदालत के निर्देश की मांग की गयी थी.

अरुण मिश्रा वही आदमी हैं जिसने सहारा-बिड़ला पत्रों” की जांच की याचिका को खारिज कर दिया था. उस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के अधिकारियों द्वारा मारे गये छापे के दौरान आदित्य बिड़ला समूह के कार्यालयों से बरामद दस्तावेज़ सामने आये थे.

इन दस्तावेज़ों से पता चला था कि बड़ी मात्रा में विभिन्न लोक सेवकों और राजनेताओं को अलग-अलग समय पर रक़म का भुगतान किया गया था. इनमें प्रधानमंत्री,मोदी भी शामिल थे.गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने 25 करोड़ लिए थे.

अरुण मिश्रा वही आदमी हैं जिसकी खंडपीठ के सामने सबसे संवेदनशील न्यायमूर्ति बीएच लोया की हत्या का मामला ‘लिस्ट’ किया गया.कहा गया उनकी पसंद से ये मामला 10 वें नंबर के जज रहने के बावजूद मिला.

बाद में विवाद बढ़ने पर अरुण मिश्रा ने ख़ुद को जस्टिस लोया मामले से ‘रेक्युज़’ यानी अलग कर लिया था. लेकिन ऐसे ही दूसरे मामले जमीन अधिग्रहण के एक मामले में उन्होंने फ़ैसला सुनाया था. बाद में ये मामला उसी संविधान पीठ को सौंप दिया गया, जिसके वो भी सदस्य थे.

अरुण मिश्रा ने ख़ुद को उस संविधान पीठ से ‘रेक्युज़’ यानी अलग करने से इंकार कर दिया था. मतलब ये कि ख़ुद के दिए गए फ़ैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई में वे ख़ुद भी शामिल थे.

अरुण मिश्रा वही आदमी हैं जिसने अडानी समूह के 7 केस की सुनवाई की, और सभी में फैसला अडानी के पक्ष में गया.8000 करोड़ का फायदा अडानी को हुआ, जिसका भार राजस्थान के उपभोक्ताओं और बिजली वितरण संस्थाओं को वहन करना पड़ा.

अरुण मिश्रा वही आदमी हैं जिसने कॉलेजियम में रहते हुए अपने भाई विशाल मिश्रा को मध्यप्रदेश हाई कोर्ट में जज बनाया. 45 साल के उम्र की बाध्यता भी बदल दिया. जब तक ये आदमी सुप्रीम कोर्ट में रहा अपने पसंद के राजनैतिक दृष्टि से अतिसंवेदनशील केस की सुनवाई करते रहें.

आरक्षण, एससी ,एसटी अधिकारों को कमजोर किया. दीपक मिश्रा के साथ मिलकर मास्टर ऑफ़ रोस्टर की धज्जियां उड़ाई. उसे मोदी ने मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाकर बता दिया है भारत में आने वाले दिन मानवाधिकार के कैसे रहेंगे?

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