कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में देश में किए गए लॉकडाउन के बाद जिस तरह की अव्यवस्था फैली थी, उसका दर्दनाक मंजर सभी ने देखा है।
गोद में बच्चा लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रही प्रवासी महिलाओं की तस्वीरें भारत माता के नाम पर गढ़े गए आदर्श को आइना दिखा रही थी। भले ही इस घटना को कई महीने बीत गए हैं मगर तमाम कलाकार अपनी कलाकृतियों के माध्यम से उन यादों को अभी भी उकेर रहे हैं।
इसी की मिसाल है कोलकाता में बनाई गई एक मूर्ति-जिसे नवरात्रि के उपलक्ष्य में बनाया गया है। उसी पर प्रतिक्रिया देते हुए फेसबुक पर कौशिक राज लिखते हैं-
कोलकाता में एक कलाकार ने मां दुर्गा की जगह एक प्रवासी मज़दूर की कलाकृति बनाई है। उनका तर्क ये है कि लॉकडउन के दौरान अपने बच्चों को अपनी गोद में लेकर धूप में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने वाली महिलाएं देवी की तरह हैं।
कलाकारों की भावना सही रही होगी लेकिन मुझे लगता है जहां ये मूर्ति रखी जाए उसके ठीक बगल में प्रधानमंत्री की भी एक मूर्ति होनी चाहिए।
उस पर लिखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री की अवस्था ठीक ऐसी ही थी जब लाखों मज़दूर पैदल चल रहे थे। लोगों को पता तो चलना चाहिए कि इस मां को किसकी वजह से अपने बच्चे को गोद में लेकर भूखे प्यासे चलना पड़ा।
क्या आप चाहेंगे कि आपके घर की कोई भी महिला अपने बच्चे को गोद में लेकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चले? क्या आप चाहेंगे कि आपकी 12 साल की बेटी या बहन 1200 किलोमीटर साइकिल चलाकर अपने पिता को घर पहुंचाए?
मैं नहीं चाहूंगा कि हिन्दुस्तान की किसी भी बेटी को ज्योति कुमारी बनना पड़े। मैं नहीं चाहूंगा कि हिन्दुस्तान की किसी भी गर्भवती महिला को खुद लकड़ियां इकट्ठी करके गाड़ी बनाके उसमें सैकड़ों किलोमीटर चलना पड़े।
इसलिए इन महिलाओं को ज़रूर सलाम पहुंचे मगर कम से कम एक मुल्क के रूप में हमें गरीबों के दर्द पर गर्व करके आधी तस्वीर तो नहीं पेश करनी चाहिए।
जब दशरथ मांझी को सलाम किया जाए तो उस सिस्टम पर धिक्कार भी किया जाए जो केवल 40 किलोमीटर सड़क नहीं बना सकी, जिसके लिए दशरथ मांझी को 22 साल मेहनत करनी पड़ी। खैर, आप जब इस मूर्ति के सामने जाएं तो आंखों में गर्व नहीं, शर्म लेकर जाएं।