महामारी के इस बुरे वक्त में दिल्ली की हजारों झुग्गियों पर गाज गिरने वाली हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि रेलवे ट्रैक के आसपास मौजूद झुग्गियों को हटा दिया जाए। कथित मुख्यधारा की मीडिया में इस पर भले ही चर्चा ना हो रही हो लेकिन सोशल मीडिया पर लोग अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं।

इसी के मद्देनजर पत्रकार रिजवान रहमान फेसबुक पर लिखते हैं- न्याय की शब्दावली में झुग्गियों के लिए जगह नहीं है. न्याय में पटरी पर गुजर-बसर कर रहे लोगों का प्रवेश वर्जित है. एक न्यायधीश आता है और अपने सबसे सुरक्षित कमरे में बैठ झुग्गियों पर बुलडोजर चलवा देता है.

माननीय सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि दिल्ली में रेल ट्रैक के किनारों से 48000 झुग्गियों को नोंच कर फेंक दिया जाए, उनमें बस रही लाखों जिन्दगी का गला रेत दिया जाए. जी, हां… अदालत का यह आदेश एक चलती फिरती जिन्दगी को मौत के मुंह में झोंक देना है. उसे मरते रहने के लिए धकेल देना है
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अगर एक परिवार में चार लोगों का भी हिसाब लगाएं तो न्यायधीश महोदय के आदेश से 2 लाख लोग झटके में बेआसरा हो जाएंगे. वे एक ऐसे अंधे रास्ते पर छोड़े जा रहें जहां न रोजगार होगा और न सर पर छत.

लॉकडाउन के दौरान ही करोड़ों गरीब तबाह हो चुके हैं, उनके मुंह का निवाल छीना जा चुका है. इस पर भी जज महोदय का ऐसा अमानवीय आदेश! अगर न्यायव्यवस्था यही है तो मुझे शर्म आती है और मैं डूब जाना चाहता हूं.

अभी मुझे मालूम हुआ कि मेरी एक फेसबुक दोस्त Vijeta Rajbhar उन्हीं बस्तियों में रहती हैं जिसे उजाड़ने का आदेश पारित हुआ है. उनका पीएचडी एग्जाम सर पर है, और ऐसे में यह न्यायिक आदेश!

आप समझ सकते हैं, एक इंसान जो जिन्दगी संवारने की कोशिश में लगा है, उसके लिए यह कैसा मोड़ होगा!…जो उडान में रंग भरने की जद्दोजहद में है, उसके हाथ से ब्रश छीन कर तोड़ा जा रहा…सपने को तार-तार करने जैसे इस न्यायायिक सिस्टम में उसे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है.

ऐसा भी नहीं है कि उस बस्ती में विजेता अकेली हैं, वे लाखों लोग अपने-अपने तरीके से सपने देखने की कोशिश में हैं, उसे जीने की तमन्ना लिए बैठे हैं. और अदालत चाहती है कि वे सपने नहीं देखे. वे अन्तहीन बियावान रास्तों पर मरने के लिए छोड़ दिए जाएं…सबसे कम संसाधनों में अपना गुजर बसर करते ये लोग, लोकतंत्र की चमक दमक का हिसाब खून से चुका रहें.

जज महोदय आपको 48000 में महज 5 डीजिट नजर आ रहा होगा. आपको वैसे भी लत है, शोषित-उपेक्षित को संख्या में आंकने की. इसलिए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा अपने आदेश में आमानवीयता की विशाल परत लिये हुए हैं. यह नया नहीं है. लेकिन, पहले के हर आदेश की तरह यह भी देश के गरीब-मजदूर के जीवन, जीविका और सुरक्षा का अपमान है. यह भी संविधान के अनुच्छेद 21 की अवमानना है.

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