दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी एडमिशन राफ़ेल से कम बड़ा घोटाला नहीं है, एक बार करीब से तो देखिए।
दिल्ली विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग मेरा अपना विभाग है। मैंने यहीं से पीएचडी की डिग्री ली थी, तो एक भावुक जुड़ाव होना लाज़िम है। लेकिन यही जुड़ाव ये कहता है कि इसकी कुछ वे तस्वीरें भी सामने लाई जाएँ, जो प्रथम दृष्ट्या नज़र न आती हों। मसलन ये वही विभाग है, जहाँ सबसे ज़्यादा प्रतिरोधी प्रगतिशील प्रतिबद्धता का दावा मिलेगा। लेकिन हक़ीक़त जुड़ा है। डीयू का हिन्दी विभाग जातिवाद, क्षेत्रवाद, रिश्तेदारवाद का पुश्तैनी अड्डा रहा है। कभी किसी एक प्रोफ़ेसर की तूती टाइप कुछ बोलती रही, तो कभी दूसरे की। कल वाम ने अपने रंग में रंगा, तो अब ऐतिहासिक मौका मिला है संघ को। अकादमिक जगत में हिन्दी विभाग रोलर हैं।
ये वही विभाग है जहाँ UR का मतलब होता है GENERAL यानि सवर्णों का पचास फ़ीसदी आरक्षण। हमने पिछले साल इसके खिलाफ आंदोलन किया तो विभाग सुधरकर सीखा, नई लिस्ट जारी की। दर्जनों प्रोफ़ेसरान इस घोटाले में शामिल थे, मात्र एक-दो ने साथ दिया। विभाग सुधरा। लेकिन इस बार पीएचडी परिणाम में सवर्णों का आरक्षण अप्रत्याशित रूप से 50% से घटाकर 43% कर दिया। ये है हिन्दी विभाग का पारदर्शी सामाजिक न्याय। बाकी की कहानी फिर कभी।
अब आइए मुद्दे पर। पीएचडी-2018 के लिए घोषित परिणाम में चयन के निम्नलिखित आधार हैं-
क) 116 सीटों में सफल हुए अभ्यर्थियों में पहली कैटेगरी उन विद्यार्थियों की है, जो वाकई अपनी प्रतिभा, योग्यता व मेरिट से आए होंगे, इनकी संख्या का अंदाज़ा आप लगाएँ, मैं 1% मानता हूँ। ये परम अपवाद होंगे।
ख) दूसरी कैटेगरी में वे होंगे, जो यहीं के छात्र रहे। इससे यहाँ के कुछ प्रोफ़ेसर उनकी प्रतिभा से परिचित होकर उन्हें प्रोत्साहित करते रहे। इनकी संख्या 8-9% तक होगी। सामान्यतः ये अपवाद से थोड़ा ज़्यादा होंगे।
ग) तीसरी कैटेगरी में वे हैं, जो मूलतः यहीं के किसी प्रोफ़ेसरान के ‘चेम्बर-प्रिय’, ‘घरेलू’, ‘झोला-भार-वाहक’, ‘अवैतनिक अकादमिक श्रमिक’ व ‘अदृश्य जासूस’ के बतौर अनवरत सेवालीन रहे। ये प्रतिदिन ‘गुरुदेव’ के आने से पहले और जाने के बाद तक विभाग की शोभा होते रहे। इनकी निःस्वार्थ अथक सेवा से प्रभावित हो ‘गुरुदेव’ की कृपा एडमिशन स्वरूप प्रसाद के रूप में मिल गई। इनकी संख्या 40% होगी।
अंतिम सूची में बेहद प्रतिभाशाली वे युवा शामिल होंगे, जिन्होंने सत्ता के गलियारों से होकर आने वाले रस्ते का ज़रिया पकड़ा कि सीधे लिस्ट में नाम आ गया। फिर क्या इंटरव्यू, क्या मेरिट। इन्हें अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिए दो-तीन मिनट के इंटरव्यू पर्याप्त होंगे। इनकी संख्या 50% होगी।
अब आप कहेंगे, ये कौन सी नई बात है; तो मैं कहूँगा नई नहीं, यही मूल बात है। आप कहेंगे, क्या प्रूफ है तुम्हारे पास, तो मैं कहूँगा कि आपके पास इसे गलत ठहराने के क्या प्रूफ हैं। आप कहेंगे कि तुम मज़ाक कर रहे हो, तो मैं कहूँगा कि आपने पूरे अकादमिक तंत्र को मज़ाक बना दिया है।
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दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी में एडमिशन की न्यूनतम अर्हताएँ कुछ इस प्रकार की हैं-
यदि आपने एमए मात्र किया है, तो आपको दो स्तर होंगे, पहले विभागीय शोध परीक्षा (RET) देनी होगी, जिसमें क्वालिफ़ाई करने के बाद इंटरव्यू होगा। इसके ज़रिये नॉन-नेट सीटों पर प्रवेश मिलेगा। पिछले कुछ वर्षों तक RET के अंक अंतिम परिणाम में जोड़े जाते थे, लेकिन इस बार सब 100% इंटरव्यू पर ही मेरिट बनी।
दूसरा यदि आपने एमए के बाद एमफ़िल-नेट-जेआरएफ़ में से न्यूनतम कोई एक डिग्री ले ली है, तो आप सीधे साक्षात्कार दे सकते हैं। इस बार सब कुछ इंटरव्यू से ही तय हुआ और मेरी बनी।
अब सवाल यह है कि हिन्दी विभाग ने कैसे इन श्रेणियों में से अंतिम चयन किया होगा?
अब आइए हिन्दी विभाग के परिणाम पर बात करते हैं। हिन्दी विभाग ने इंटरव्यू में 8 दिनों में 900 से ज़्यादा लोगों के इंटरव्यू लिए, जिसमें प्रतिदिन लगभग 8 घंटे इंटरव्यू चलते थे। इस हिसाब से कुल 64 घंटे में 900 लोगों ने इंटरव्यू दिए, जिसमें एक इंटरव्यू के लिए औसतन 4 मिनट, जिनमें से 2 मिनट नाम पुकारने, आने-जाने में लगेंगे और 2 मिनट में इंटरव्यू। अब इन दो दो मिनट के इंटरव्यू में प्रतिभा, कुशलता, योग्यता के साथ साथ सिनोप्सिस के विषय पर पर्याप्त सवाल पूछे गए होंगे, ये मैं मान लेता हूँ।
लेकिन अंतिम परिणाम में साफ साफ ये दिख रहा है कि कुछ ऐसे चयन हुए हैं, जो केवल एमए हैं या केवल नेट हैं और वहीं दर्जनों ऐसे बच्चे बाहर हो गए हैं, जिनके शानदार अकादमिक रिकॉर्ड के साथ एमफ़िल, नेट या जेआरएफ़ सब कुछ है। दर्जनों छात्र तो ऐसे हैं, जो डीयू के हिन्दी विभाग से ही एमफ़िल कर रहे हैं और जेआरएफ़ भी हैं, लेकिन 2 मिनट के इंटरव्यू में शायद ये सिद्ध नहीं कर पाए होंगे कि उन्होंने ये जो तमाम डिग्रियाँ ले लिन, हिन्दी विभाग में एमफ़िल किया, उसके लिए ये ‘मेरिट’ डिज़र्व करते हैं। फेल कर दिए गए।
अब क्या आप ये नहीं कहेंगे कि ये मुल्क के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में अब तक हुए एडमिशन में सबसे ज़्यादा सीटों यानि 116 पर हुआ हिन्दी विभाग का एडमिशन मसला अकादमिक जगत का राफ़ेल घोटाला नहीं होगा? मैं इसे यही कहूँगा।
- लक्ष्मण यादव, दिल्ली विश्विद्यालय