संविधान की आत्मा ऐसे ही नही मरेगी उसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है! और उसके लिए जरूरी है कि एक ऐसी ही भीड़, ऐसा ही उन्माद और ऐसे ही सोच के बीज बो दिया जाए जो धीरे धीरे संविधान की हत्या स्वयं कर देगी! और इसी कड़ी में सुबोध सिंह के हत्या को देेेखा जाना चाहिए।

खैर सुबोध सिंह कोई एक्टिविस्ट कोई राजनेता कोई कलाकार,पत्रकार या उद्यमी नही थे जिनके लिए कोई हाय तौबा मचे ! वह इंसान एक पुलिसकर्मी था और मैं जानता हूं कि सभी बड़े-महान लोगो की नज़र में पुलिस वाला चोर, बेईमान, राजनेताओं के तलुवे चाटने वाला ही होता है!

खैर पुलिस की नियति ही यही है। पुलिसकर्मी अपनी कमजोरी के साथ साथ दूसरे विभाग की नाकामियों के बोझ को भी अपने कंधे पर ढोती है। पुलिस सभी के आशाओं को कंधा देती है और इसीलिए अपने कंधे तुड़वा बैठती है।

आजकल पुलिस के इक़बाल की बातें बहुत हो रही हैं। मैं भी मानता हूं कि पुलिस का इक़बाल कम हुआ है लेकिन मुझे ये भी बता दीजिए कि इतने कम संसाधनों और राजनीतिक दबाव के बीच किस संस्था का इक़बाल इस देश मे मजबूत हुआ है!चाहे शिक्षण संस्थान हो पत्रकारिता, मेडिकल, विधायिका हो या अन्य कोई भी संस्थान सभी अपने उद्देश्य को पूरा करने मे असफल ही साबित हो रहे हैं।

मैं सुबोध कुमार सिंह को सलाम करता हूं, जिन्होंने अपने बेटे को ‘हिंदू-मुस्लिम’ करना नहीं ‘प्यार’ करना सिखाया : रवीश कुमार

लेकिन जो महत्वपूर्ण बात है वो यह है कि पुलिस को जहां डील करना होता है उस कार्य की प्रकृति कुछ ज्यादा ही गंभीर होती है,जिसकी परिणति सुबोध सिंह के रूप में भी होती है। अन्य कौन सा विभाग है जहां के प्रोफेशनल को इस तरह अपनी जान गंवाना पड़ता है!

सुबोध सिंह को मारने के पीछे जो भी योजना रही हो लेकिन इस तरह की घटनाएं हमारे समय का इतिहास लिख रही है जो आगे चलकर हमारे देश के भूगोल को बदलने का माद्दा रखती है! जो गंभीर नही हैं वह देश के आंतरिक विभाजन को गौर से देख ले कि कौन कहाँ किसके साथ और क्यों रह रहा है!

खैर हम पुलिसवाले हैं जो वर्दी पहन लेने के बाद ठुल्ला, चोर-बेईमान, और तलवे चाटने वाले हो जाते हैं। लेकिन हम हमेशा ऐसे ही नही रहेंगे उसके लिए सामान्य मानस को आगे आना होगा, उसके लिए मंदिर-मस्जिद निर्माण से ज्यादा पुलिस सुधार की बाते करनी होगी! पुलिस ही नही हमारे तथाकथित आकाओं(कुछ लोगों के हिसाब से) से प्रश्न करना होगा कि पुलिस रिफॉर्म को क्यों नही आगे बढ़ाया जा रहा!

हेमंत करकरे और सुबोध सिंह की हत्या एक जैसी, दोनों ही गंभीर मामलों की जांच कर रहे थे- कांग्रेस नेता

मैं सलाम करता हूं अभिषेक को जो अपने पिता के मरने के बाद भी हिंसा व नफरत की भाषा को नही फैला रहा। सच कहूं तो तस्वीर में भी उससे नज़र नही मिला पा रहा! पुलिस एक परिवार है और अभिषेक जैसे सभी हमारे अपने हैं।

खैर बुलंदशहर की भयावहता को मैं केवल थोड़ी बहुत ही कल्पना में उतार पा रहा हूं क्योंकि इस तरह की एक घटना मेरे क्षेत्र में भी घटित हुई थी, जब एक गाय को काट कर फेंक दिया गया था!

उस समय भीड़ की मानसिकता क्या होती है इसका अंश भर अंदाजा हमें है, लेकिन यह भी सच है कि जिस भीड़ का सामना मैंने किया उसमे नफरत का स्पेस इतना नही था!

लेकिन नफ़रत की खेती जब लगातार होगी तो बीज वृक्ष बनेगा ही तब कोई एक सुबोध सिंह नही रहेगा हम सभी ‘सुबोध’ हो जाएंगे! हो सकता है कि कोई गोली हमारी भी इन्तज़ार कर रही हो!

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