किसान बिल के क्या दुष्प्रभाव होंगे हिमाचल के सेब के उदाहरण से समझिए…

हिमाचल के शिमला के ऊँचे इलाको में सेब के बागान है और वहाँ के किसानों से छोटे छोटे व्यापारी कुछ सालों पहले तक सेब खरीदकर देश भर में भेजते थे.

इन व्यापारियों की छोटी मंडी थी इनके छोटे-छोटे गोदाम थे. 2012 में अडानी की नजर इस धंधे पर पड़ गयी चूंकि उस वक्त हिमाचल प्रदेश भाजपा की सरकार थी तो अडानी को वहां गोदाम बनाने के लिए जमीन लेने और बाकी कागजी कार्यवाही में कोई दिक्कत नहीं आई.

अदानी ने शिमला जिले में स्थित मेहंदी, रेवाली और सैंज में कोल्ड स्टोर इकाइयों की स्थापना की ये जो उन छोटे व्यापारियों के गोदाम से हजारों गुना बड़े थे.

शुरुआत में अडानी ने सेब खरीदना शुरू किया, तो उसने कुछ सालों तक सेब उगाने वालो से छोटे व्यापारी की अपेक्षा अधिक भाव पर सेब खरीदना शुरू किया बाद में वॉलमार्ट, बिग बास्केट और सफल जैसी नामी कंपनियां मैदान में आयी और रेट पहले की अपेक्षा अच्छा मिलने लगा.

नतीजा यह हुआ कि मंडी का छोटा व्यापारी इन मल्टीनेशनल कंपनियों के सामने टिक नही पाया और साफ हो गया अब वहा की मंडियों में इन बड़े व्यापारियों के कुछ ही व्यापारी बचे अब अडानी अपने असली रँग में आ गया है.

अडानी अब हर साल वहाँ उत्पादित सेब की कीमत को कम कर रहा है, इस साल जो उसने कीमत तय की है वह बीते साल के मुकाबले 16 रुपये प्रतिकिलो कम हैं।

अमर उजाला अखबार के अनुसार, अडानी एग्री फ्रेश कंपनी 80 से 100 फीसदी रंग वाला एक्स्ट्रा लार्ज सेब 52 रुपये प्रति किलो जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल सेब 72 रुपये प्रति किलो की दर पर खरीद रही है.

जबकि बीते साल एक्स्ट्रा लार्ज सेब 68 जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल सेब 88 रुपये प्रति किलो खरीदा गया है सेब के वाजिब दाम नहीं मिलने से सेब वाले बागवानों ने तुड़ाई का काम रोक दिया है।

दरअसल यही भविष्य है कृषि के कारपोरेटीकरण का, ऐसा ही होगा जब अडानी जैसे बड़े उद्योगपति मंडियों पर कब्जा कर लेंगे तो ऐसा ही परिदृश्य सामने आएगा.

(यह लेख गिरीश मालवीय की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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