सिद्धार्थ रामू

मैं एक बात के लिए गांधी की भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूं कि उस व्यक्ति ने इस बात के लिए अपनी जान की बाजी लगा दिया कि भारत-पाकिस्तान बंटबारे के बाद भी इस देश पर जितना हक हिंदुओं का है, उतना ही हक मुसलमानों का भी है। ऐसा सोचना भी सावरकर, गोडसे और आरएसएस-भाजपा की विचारधारा के पूरी तरह खिलाफ जाता है।

मुसलमानों के प्रति अपनी खुली पक्षधरता की कीमत गांधी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। आज भी ऐसे लाखों लोगों की जरूरत है, जो इस देश इस समय दमन एवं अन्याय के शिकार मुसलमानों के साथ गांधी जैसी प्रतिबद्धता के साथ खड़े हों और यदि इसके लिए जान भी गवानी पड़े तो उसकी परवाह न करें।

यदि कोई गांधी की तरह जीने के बारे सोचता है, तो उसे गांधी की तरह मरने के लिए भी तैयार रहना है। यह एक जगह जाहिर तथ्य है कि आप जिस तरह अपनी मौत के बारे में सोचते हैं, उसी तरह आप जीवन भी जी पाते हैं।

मौत के बारे में गांधी की चाहत थी कि वे अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते हुए मृत्यु को प्राप्त करें और ऐसा ही हुआ। उन्हें मुसलमानों के खिलाफ होने वाले अन्याय एवं अत्याचार के विरोध की कीमत अपनी  जान देकर चुकानी पड़ी।

हिंदू-मुस्लिम एकता कायम करने की कोशिश करते हुए, जब गणेश शंकर विद्यार्थी दंगायियों के हाथों शहीद हो गए, तो गांधी ने जो भावना प्रकट, उसमें उन्होंने साफ लिखा है कि मैं विद्यार्थी जी की तरह अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते हुए मरना चाहता हूं।

आखिर वही हुआ। मुसलमानों के प्रति घृणा से भरे गोडसे ने गांधी की हत्या कर दिया। उसी गोडसे के विचारों के वाहक इस देश पर कब्जा कर चुके हैं। गांधी का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है?

प्रश्न यह है कि जो लोग खुद को गांधी के विचारों का अनुयायी कहते हैं, उनमें कितने लोग गांधी की तरह जीने के साथ गांधी की तरह मरने को तैयार हैं।

वर्ण-जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, श्रम और पूंजी के रिश्ते और जमींदार-भूस्वामी के बीच के संबंधों के बारे में गांधी के विचारों से मैं पूरी असहमत हूं। इस संदर्भ में विस्तृत विवेचना डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब गांधी और कांग्रेस ने अछूतों के लिए क्या किया के दो अध्यायों- श्री गांधी से सावधान और गांधीवाद में विस्तार से किया है, जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूं।  लेकिन डॉ. आंबेडकर की तरह मेरी भी गांधी असहमति वैचारिक हैं, न कि कोई व्यक्तिगत राग-द्वेष के चलते हैं।

जैसा कि मैंने पहले लिखा है कि अपने वैचाारिक विरोधियों से संघर्ष की इस देश में दो परंपरा रही है-एक दलित-बहुजन परंपरा है, जो अपने वैचारिक विरोधियों को तथ्यों पर आधारित नैतिक-बौद्धिक चुनौती देती है, जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने गांधी के साथ किया, लेकिन कभी उस व्यक्ति की हत्या करने या किसी तरह का शारीरिक नुकसान पहुंचाने के बारे में नहीं सोचती है। यहां तक की जरूरत पड़ने पर अपने समुदाय के सबसे बड़े हित को दांव पर लगाकर भी अपने विरोधी की जान बचाती है,जिसका सबसे बड़ा उदाहरण डॉ. आंबेडकर ने प्रस्तुत किया। डॉ. आंबेडकर ने पृथक निर्वाचन की अपनी सबसे प्रिय मांग (दलितों के लिए सबसे जरूरी) छोड़कर और पूना पैक्ट करके गांधी की जान बचाई।

इसके विपरीत सावरकर के अनुगामी और हिंदू राष्ट्र को अपना आदर्श मानने वाले वाले हिंदू धर्म रक्षा की भावना से प्रेरित गोडसे ने सहिष्णु और सर्वधर्म समभाव के हिमायती और नरम हिंदू माने जाने वाले गांधी की हत्या करने में थोड़ा भी नहीं हिचका और गांधी की न केवल बर्बर तरीके से हत्या किया,  बाद में भी उसे जायज भी ठहराया ( गांधी बध क्यों ?) और उस पर गर्व महसूस करता रहा है।

यह दो परंपराओं का अंतर है। वैचारिक विरोधी की भी जान बचाने वाली परंपरा की जड़ बहुजन-श्रमण परंपरा में है, जिसके केंद्र में गौतम बुद्ध, कबीर-रैदास, जोतीराव फुले और डॉ. आंबेडकर आदि हैं।

दूसरी परंपरा वैदिक, सनातन, ब्राह्मणवादी  हिंदी धर्म की है, जो अपने वैचारिक विरोधी की हत्या में विश्वास करती है। सारे हिंदू धर्मशास्त्र और महाकाव्य हिंसा का समर्थन करते हैं, सारे ईश्वर और देवता हिंसक हैं। सबसे महान दार्शनिक ग्रंथ कहे जाने वाली गीता भी हिंसा को जायज ठहराने के लिए लिखी गई है। तथाकथित महान संत तुलसीदास की रामचरित मानस भी हिंसा से भरा पड़ा है।

अपने वैचारिक विरोधियों के ख़िलाफ़ गोडसे के वारिसों के हिंसा का तांडव आज पूरे देश मे चरम पर पहुँच गया है।

(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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