उर्मिलेश

लोगों की मौतें वायरस से ज़्यादा अपने देश की लुंजपुंज लोक स्वास्थ्य सेवा, अदूरदर्शी एवं सिर्फ चुनावदर्शी नेताओं, लुटेरे कारपोरेट और निकृष्टतम नौकरशाही के मिले-जुले असर के कारण हो रही हैं! ये मौतें महामारी से ज्यादा व्यवस्थागत हैं।

आम आदमी के लिए लोक स्वास्थ्य सेवाएं (Public Health services) हैं ही नहीं। जो थोड़ी बहुत हैं, वो दक्षिण के राज्यों में ही दिखती हैं।

हमारे यहाँ लोक स्वास्थ्य सेवा के नाम पर सिर्फ कुछ एम्स बने हैं, कुछ मेडिकल कॉलेज अस्पताल हैं, पहले के बने जिला अस्पताल बर्बाद हो चुके हैं या हो रहे हैं।

इतनी बड़ी आबादी वाले मुल्क के लिए ये सब ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं। बाकी सबकुछ निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया।

पूरी दुनिया के नक्शे पर नज़र डालिये, जहां-जहां कोरोना को अपेक्षाकृत कम समय में और ज्यादा क्षति हुए बगैर काफी हद तक नियंत्रित किया गया, उन सभी मुल्कों में लोक स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही बहुत व्यवस्थित और सुगठित थीं।

इन देशों ने हमेशा अपने लोक स्वास्थ्य पर 6 फीसदी से लेकर 16 फीसदी खर्च किया और हमारे देश में यह खर्च आज तक कभी 2.5 फीसद को भी पार नहीं कर पाया!

देश के वीवीआईपी, बड़े उद्योगपति और बड़े नौकरशाह जब स्वयं किसी तरह के स्वास्थ्य-संकट में फंसते हैं तो अपने लिए ‘बेहतर हेल्थकेयर’ खरीद लेते हैं, बाकी जनता को कहा जाता है कि वो धैर्य रखे!

समाज की भी गलती रही, उसने शिक्षा, लोक स्वास्थ्य सेवा विकास, रोजगार के लिए कब मतदान किया? उसने ज्यादातर जाति, धर्म, मंदिर और मस्जिद के नाम पर वोट किया।

आजादी के बाद हमे एक संविधान जरूर मिला था, जो जनतंत्र का रास्ता दिखा रहा था। पर आजादी के बाद हमने अपने सही अर्थो में सुसंगत जनतंत्र बनाया ही नहीं।

जब तक स्वाधीनता आंदोलन के कुछ मूल्य शेष थे, समाज और सत्ता के स्तर पर कुछ कोशिशें दिखती रहीं। पर कुछ समय बाद लड़खड़ाने लगीं।

हाल के कुछ दशकों में समाज, सत्ता और शासन के स्तर पर आर्थिक सुधारों और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का खतरनाक कॉकटेल तैयार होता रहा। इसने निरंकुशता का अभूतपूर्व विस्तार और सुदृढ़ीकरण किया. आज वो प्रक्रिया पूरा आकार ले चुकी है।
हम सचमुच अभिशप्त हैं!

(यह लेख पत्रकार उर्मिलेश की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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