रिज़वान रहमान
बीते दिन 22 मई 2021 को, 22 मई 1987 दुहरा दिया गया. आज से ठीक 34 साल पहले जो हाशिमपुरा में हुआ था, वही छोटे स्तर पर उन्नाव में भी हुआ. इन दोनों में भारतीय पुलिस व्यवस्था का रूह कंपा देने वाला खौफनाक चेहरा है.
हाशिमपुरा में पीएसए के जवानों ने मुसलमानों को उनके घरों से खींच कर उन पर अंधाधुंध फायरिंग की थी. गोलियों से भूनी हुई 42 मुसलमान की लाश को हिंडेन नदी की तलछट में फेंक दिया गया था.
और उन्नाव में सब्जी बेचने वाले 17 साल के फैसल को पुलिस “कोविड प्रोटोकॉल के उल्लंघन के बहाने” जबरदस्ती उठाकर थाने में ले जाती है, उसे इस हद तक पीटती है कि वह चोटिल होकर मर जाता है.
उन्नाव में पुलिस और व्यवस्था द्वारा फैसल की संस्थानिक हत्या, खास समुदाय के प्रति बढ़ रही नफरत है.
आने वाली नस्लों के लिए आज़ाद हिंदुस्तान का जो इतिहास लिखा जाएगा, उसमें अंकित होगा कि हमारा कथित धर्मनिरपेक्ष भारत खूनी रहा है. उसके दामन पर अल्पसंख्यकों के खून के धब्बे साफ हैं. दुनिया का कोई भी डिटर्जेंट पाउडर उस दागदार दामन की धुलाई नहीं कर सकता.
तब इतिहासकार प्रस्तावना में लिखेंगे, यह इतिहास मुसलमानों के जिस्म को गोलियों से दागने और बूटों से रौंदने के सिलसिले का डॉक्यूमेंटेशन है.
वे यह भी बताएंगे, किस तरह इन जघन्य पुलिसिया अपराधों में सत्ता, आरोपियों को बचाती थी. मेंटेन की जाने वाली केस डायरी इंसाफ के लिए नहीं, पुलिस के जवानों के बचाव का दस्तावेजीकरण होती थी.
और भारतीय न्यायपालिका के बंद दीवारों के बीच न्याय की इबारतें, मुसलमानों के जख्म पर नमक छिड़कते हुए ठिठोली करती थी.
आज 22 मई 1987 से 34 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय मुसलमान न सिर्फ ठगा सा है बल्कि लगातार हमले झेल रहा है. स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े कस्टोडियल किलिंग हाशिमपुरा में किसी को सजा नहीं हुई.
उन्नाव में भी नहीं होगी. दरअसल इंडियन स्टेट के किसी भी स्टेक होल्डर को गवारा नहीं है कि अल्पसंख्यक के खिलाफ हुए अपराध में अपराधी को सजा मिले. इसमें कोई चौंकने वाली बात है भी नहीं. इंडियन स्टेट का चरित्र ही मूल रूप में अल्पसंख्यक विरोधी है. न्यायपालिका सत्ता की नकलची है, क्योंकि लाशें मुसलमान होती हैं.
पिछ्ले 50-60 साल पर नज़र डाले तो पुलिस का यही रवैया दिखता है. मुसलमानों के साथ बर्बरता, गिरफ़्तारी, घर में घुस कर जबरन तलाशी और फ़ायरिंग. तब पुलिस फोर्से, मारने-पीटने में संगठित ‘हिन्दू बल’ के रूप में काम करती है जो बीते कल उन्नाव में देखने को मिला.
उनके लिए एक मुसलमान के मरने का मतलब है एक मुसलमान कम हुआ. आगे मुक़दमों की तफ़्तीश करने वाली एजेंसी भी इसी प्रवृत्ति के साथ काम करती है. और अदालत तक उनके कम्युनल रवैया के साथ खड़ी नज़र आती है.
यह कथित धर्मनिरपेक्ष भारत के इतिहास और वर्तमान का पैटर्न है जो खौफ़नाक और यातनादायक है. मुसलमान कुछ साल पहले तक दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते थे लेकिन अब उनकी हैसियत और भी भयावह है.
इंडियन स्टेट और पुलिस का हमलावर रवैया लगातारा गहराता जा रहा. न्यायिक सिस्टम ने इन सब से आंखें मूंद रखी है. और मुसलमान अपने ऊपर हो रहे जुल्म को कांधों पर ढोते रहने को मजबूर है.
(ये लेख पत्रकार रिज़वान रहमान के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। लेख में प्रस्तुत किए गए तथ्य और विचार उनके निजी हैं। )