सीबीआई विवाद पर आलोक वर्मा के इस्तीफे के बाद अब सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठने लगा है। पत्रकार ओम थानवी ने सोशल मीडिया पर लिखा, सरकार को भले लोकतंत्र की फ़िक्र नहीं, न संस्थाओं के दरकने की। लेकिन सुप्रीम कोर्ट क्यों मूक दर्शक-सा बन बैठा है?

आलोक वर्मा का केस बेहतर मौक़ा था मर्यादा को बाँधने का। मगर सीवीसी की बेईमानी को न जस्टिस पटनायक की निगरानी रोक पाई (जबकि उनकी रिपोर्ट बंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को मिल गई थी) और न जस्टिस सीकरी की चयन समिति में भागीदारी।

थानवी ने लिखा कि सबको पता था कि सीबीआई से प्रधानमंत्री कार्यालय के दो अधिकारी डरे हुए थे। रफ़ाल की जाँच के भय से ख़ुद प्रधानमंत्री, उनकी सरकार और पार्टी भी। आख़िर चुनाव का साल है, उनके लिए ‘पानीपत की लड़ाई’ है।

जस्टिस पटनायक बोले- आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ नहीं थे भ्रष्टाचार के सबूत, फिर क्यों मोदी ने उन्हें हटाने में जल्दबाज़ी दिखाई?

मगर न्यायालय के न्याय को क्या हुआ? अगर भूल या गफ़लत से वर्मा पर लांछन आया है तो अब भी अदालत के पास भूल-सुधार का अवसर है। वरना मानकर चलिए कि आने वाले दिनों में सरकार की तूती बजेगी, अदालत का इक़बाल धूल फाँकेगा।

बता दें कि ढाई महीनें पहले तत्कालीन सीबीआई चीफ़ आलोक वर्मा और मोदी सरकार के क़रीबी राकेश अस्थाना की आपस में अनबन चल रही थी। दोनों एक दूसरे पर मीट कारोबारी मोईन क़ुरैशी केस में आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे थे।

मोदी जी, अगर आलोक वर्मा ‘भ्रष्टाचारी’ हैं तो जेल भेजने के बजाए उन्हें फायर DG क्यों बनाया गया

सीवीसी के रिपोर्ट के बाद ही 10 जनवरी को पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली हाई पावर कमेटी ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक पद से हटाकर फ़ायर और होमगार्ड विभाग का निदेशक बना दिया था जिसके बाद वर्मा ने उस पद को लेने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here