अखिलेश और मायावती की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के साथ भारतीय राजनीति में हलचल पैदा हो गई है। उत्तर प्रदेश समेत देश की राजनीति में खासा असर रखने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के इस गठबंधन से बने समीकरण के असर को नकारा नहीं जा सकता।

2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुए इस गठबंधन से बीजेपी की वापसी की राह मुश्किल लग रही है।

2014 में यूपी की 80 में से 71 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए सपा-बसपा गठबंधन बड़ी चुनौती बन गई है।

इसके साथ ही सवाल उठने लगा है कि क्या मायावती और अखिलेश यादव का साथ आना भारतीय जनता पार्टी को 2019 में रोकने के लिए पर्याप्त है ?

सामाजिक समीकरण देखें या आंकड़ों की गणित, सपा-बसपा का गठबंधन बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचाने वाला है।

उपचुनावों में मिली सफलता के साथ ही सपा-बसपा के पास एक ऐसी मिसाल है जिससे वो गठबंधन की सफलता की दावेदारी कर सकते हैं।

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ठीक 26 साल पहले 1993 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में बीजेपी की एकतरफा जीत मानी जा रही थी क्योंकि राम मंदिर को मुद्दा बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने सबसे बड़े राज्य में बड़ी पैठ बना ली थी। तब बसपा प्रमुख कांशीराम ने एक इंटरव्यू में कहा कि यदि मुलायम सिंह उनसे हाथ मिला लें तो उत्तर प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों का सूपड़ा साफ हो जाएगा।

इस बात को मुलायम सिंह यादव ने गंभीरता से लिया और दिल्ली में कांशीराम के निवास पर उनसे मिलने गए, सपा और बसपा का गठबंधन हुआ, नए सामाजिक समीकरण बने।

राम मंदिर का मुद्दा और हिंदुत्व की राजनीति की आंधी में भी मुलायम और कांशीराम की जोड़ी ने भारतीय जनता पार्टी की संभावित जीत को रोक दिया और यह गठबंधन 176 सीटें जुटाने में सफल रहा।

256 सीटों पर लड़ी समाजवादी पार्टी ने 109 सीटों पर जीत दर्ज की और 164 सीटों पर लड़ने वाली बसपा ने 67 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 177 सीटें जीतकर भी भाजपा सरकार बनाने में नाकाम रही।

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सपा-बसपा कार्यकर्ताओं को इस तरह की नारेबाजी जनता में जोश भरने वाली थी क्योंकि बीजेपी की हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ इतने मुखर स्वर किसी अन्य दल से नहीं थे।

जीत के बाद सपा-बसपा ने मिलकर सरकार चलाई। हालांकि 1995 में गेस्ट हाउस विवाद के बाद दोनों दल अलग हो गए।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 90 के दशक जैसा जनसमर्थन फिर से मिलने लगा है लेकिन गौर करने की बात यह है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तब से अब तक और अधिक मजबूत हुए हैं।

पिछले ढाई दशक में अधिकतर समय ना सिर्फ इन्होंने राज किया है बल्कि यूपी में हर दूसरा वोटर सपा-बसपा का ही है।

इसलिए अगर गठबंधन में सपा और बसपा की उम्मीदवारों की तरफ आपस में वोट शिफ्ट हुआ और गठबंधन की मजबूती को देखते हुए 2014 से पहले के इनके कुछ प्रतिशत वोटर्स भी वापस आए तो यह गठबंधन 50 फ़ीसदी से ज्यादा वोट पाने में सफल रहेगा।

ये वो परिस्थिति होगी जब भारतीय जनता पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ेगा।

इसपर समाजवादी पार्टी के नेता सुनील सिंह यादव का कहना है कि ‘जब नेताजी और कांशीराम साथ आए थे तो उन्होंने बीजेपी को रोका था लेकिन अब अखिलेश यादव और मायावती मिलकर बीजेपी को खत्म कर देंगे अर्थात यूपी से पूरी तरह से सफाया हो जाएगा।’

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गठबंधन क्लीन स्वीप करे या ना करे लेकिन बीजेपी को एक बड़ा नुकसान होना तय है।

तो क्या हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी की कमंडल की राजनीति का जवाब फिर से मंडल के समीकरण ही देने वाले हैं?

इसी बात को पुष्ट करते हुए, सपा-बसपा गठबंधन की औपचारिक घोषणा के ठीक बाद तेजस्वी यादव लिखते हैं- यूपी-बिहार से भाजपा का सफाया तय

विकास के तमाम बड़े बड़े दावे करने के बाद भी सभी को पता है कि बीजेपी की राजनीति का आधार अब भी ‘हिंदुत्व’ ही है। तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बीजेपी के हिंदुत्व रथ पर लगाम लगाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सपा और बसपा के कंधों पर है। क्योंकि 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश की अहमियत पूरे देश को पता है

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