इस देश में दो तरह के आरक्षण हैं- एक संवैधानिक यानी सामाजिक न्याय पर आधारित

और दूसरा- जन्मजात यानी जातिवादी श्रेष्ठता पर आधारित

संवैधानिक आरक्षण पर तो आए दिन बवाल होते रहते हैं मगर जातिवादी आरक्षण सवालों से बाहर होता है क्योंकि ये ‘पवित्र बुराई’ है।

वंचित समाज के 49% घोषित आरक्षण पर शोर होता है मगर अपेक्षाकृत समृद्ध समाज के अघोषित 51 % आरक्षण पर नहीं।

ख़ैर, अब शोर दूसरी तरफ से भी होने लगा है, सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग भी अब वंचितों के हक की आवाज़ उठाने लगे हैं।

उसी का एक उदाहरण है जाकिर हुसैन कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव का खुलासापूर्ण ये लेख.

पढ़ें-

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एमफ़िल में प्रवेश का अभी अभी परिणाम आया है, जिसमें भयानक कोटि का सामाजिक न्याय हुआ है। कुल 12 UR सीटों पर अंतिम परिणाम कुछ यूँ है-
UR – 12
GEN – 11
OBC – 01
SC – 00
ST – 00

बाकी कुछ कहना शेष है क्या। और चाहिए आरक्षण। एक OBC को इसलिए UR में डाल दिया कि सवाल न किया जा सके और सबको ये समझा दिया जाय कि दलित आदिवासी में तो कोई मेरिटोरियस है ही नहीं। बाकी सवर्णों को पूरा पूरा आरक्षण। ये आलम है इन निहायत धूर्त सत्ताधीशों का।

दलित, पिछड़ों, आदिवासियों को कब ये समझ आएगा कि ये जो विश्वविद्यालयों में हो रहा है, पीढ़ियों के संघर्षों से मिला सब कुछ नाकाम निकम्मों के सामने खत्म होता जा रहा है। शिक्षा व रोज़गार उनके हाथ से हमेशा के लिए जा रहा है। कब समझेंगे।

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