जिन बच्चों के घर में रोटी के लिए दो रुपए नहीं होते, वे लीची खाकर ‘चमकी’ के शिकार हो गए और मर गए!
यानी ठीक वही, जैसे ‘ब्रेड नहीं है… तो केक खाने दो’! यह अठारहवीं सदी में फ्रांस की क्रांति के दौरान लुई 16वें की महारानी मैरी एंटॉयनेट ने कहा था. कहते हैं कि जब महारानी को यह पता चला कि अकाल के कारण गरीबों के पास ब्रेड तक नहीं है तो उसने कहा था कि ब्रेड नहीं है तो केक खाने दो!
मुजफ्फरपुर में सौ से ज्यादा बच्चों की ‘सांस्थानिक हत्या’ के बाद कुछ महान एलियनोंं की दलील है कि बच्चों ने भूखे पेट लीची खा ली और मर गए!
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और उधर नीतीश सरकार के मंत्री ने कहा कि मरने वाले और मर रहे बच्चों की किस्मत खराब थी, इसलिए वे मर गए या मर रहे हैं! इतना संवेदनहीन समाज किस दौर में कहां होगा!
मुजफ्फरपुर में लीची होती है तो वहां के बच्चे लीची खाकर मर गए! गोरखपुर से लेकर महाराष्ट्र तक में इसी उम्र के इसी बीमारी से मारे गए बच्चों ने क्या खाया था?
दिल्ली में लीची सस्ती है तो अस्सी रुपए किलो! मुजफ्फरपुर में मुफ्त नहीं मिलती! जो बच्चे मर गए या मर रहे हैं, उनकी औकात खरीद कर लीची खाने की तो है नहीं! लीची कोई आम नहीं है कि कहीं से लेकर खा लिया जाए! लीची के बगान और खेती को जाकर देख लीजिए, पता कीजिए कि लीची जैसे आज केवल कारोबारी फल हो चुका है, उसमें इतनी बड़ी तादाद में बच्चों को लीची कैसे मिली! हकीकत का पता लगने पर आपको लीची-दलील पर केवल शर्म ही आ सकती है!
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दरअसल, जब सत्ताधारी तबके अपना अपराध छिपाने लगते हैं तो इसी तरह की फर्जी दलीलों से लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं!
कहिए वहां मौजूद लोगों में से किसी को इस पर काम करें कि इतनी बड़ी तादाद में मरने वाले बच्चों को कहीं ‘गिनी पिग’ बना कर उन पर क्लीनिकल ट्रायल या दवा परीक्षण तो नहीं किया गया..!
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अरविंद शेष