
16 दिसंबर, 2012 की रात दक्षिण दिल्ली में उस बस में जो हुआ, वह भयानक था। आखिरकार लड़की को जान से हाथ धोना पड़ा। बलात्कार की वह नृशंस घटना थी। लेकिन क्रूर तथा हिंसक सामूहिक बलात्कार और हत्या की वह देश की पहली या आखिरी भयानक वारदात नही थी।
भयावहता की कोई तुलना नहीं हो सकती, लेकिन इस देश में 4 साल की बच्ची से लेकर 80 साल की बुजुर्ग तक से रेप हो रहा है, अकल्पनीय यातनाएं देकर रेप किए जा रहे हैं।
फिर 16 दिसंबर, 2012 की घटना में ऐसा क्या था, जिसने मीडिया को उद्वेलित कर दिया और उसने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया? आपकी कॉमनसेंस वाली व्याख्याएं, इस कांड के मीडिया कवरेज को जस्टिफाई नहीं कर सकती।
लड़की अमीर नहीं थी। जो सफर 200 रुपए में टैक्सी में हो सकता था, उस सफर को 20 रुपए में करने के लिए ही वह बस में सवार थी। वह किसी इलीट कॉलोनी की निवासी नहीं थी। बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। जानने वाला हर आदमी जानता है कि वह सवर्ण भी नहीं थी। घटना जहां हुई, वह भी सामान्य लोकैलिटी है।
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यानी कि मीडिया जिन केस को गंभीरता से लेता है, वैसा एक भी कारण इस घटना में नहीं था। तो फिर हुआ क्या? चलिए मेरे साथ उस घटना को याद कीजिए।
अगले दिन खबर आने पर पूरी मीडिया ने तय किया कि, जो कानूनी रूप से सही भी है कि पीड़िता का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। तो उसे किसी ने निर्भया तो किसी ने दामिनी कहा।
लड़की के वास्तविक नाम से भी उसकी जाति का पता नहीं चलता। सिंह बेहद कॉमन सरनेम हैं. सैकड़ों जातियां लगाती हैं। परिवार की पहचान भी छिपा कर रखी गई। लेकिन एक पहचान सार्वजनिक होकर सामने आई। अवनींद्र प्रताप पांडे।
निर्भया का दोस्त। दोनों साथ में फिल्म देखकर लौट रहे थे। वह घटना में बच गया था। मीडिया ने क्लू यहां से लिया। देश के ओपिनिन लीडर्स ने सिरा यहां से पकड़ा। पुलिस-प्रशासन से लेकर नेताओं तक को घटना की गंभीरता समझ में आ गई। समाज की राय यहां से बनी।
अवनींद्र प्रताप का पांडे होना इस घटना की बड़ी कवरेज की एक अहम वजह थी। अकेली वजह नहीं भी तो निस्संदेह एक बड़ी वजह। इसके बाद वही हुआ, जो आप जानते हैं।
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लखनऊ के विवेक तिवारी कांड मे भी आप मीडिया का सघन कवरेज देख चुके हैं। उसकी तुलना खैरलांजी की घटना से कीजिए. उसकी तुलना संजली की घटना से कीजिए। विवेक तिवारी के मुकाबले एक दलित या ओबीसी की पुलिस द्वारा हत्या का मीडिया कवरेज देखिए।
भारत में हर जिंदगी की बराबर कीमत संविधान आंकता है। लेकिन हमारा सिस्टम, हमारी मीडिया, हमारी पुलिस, हमारा समाज, हमारी न्यायपालिका और खुद हम तमाम जिंदगियों को बराबर नहीं मानते।
यही हमारी सदियों की ट्रेनिंग है।
इसके शिकार सवर्ण, अवर्ण और अछूत सभी हैं।
हम सबकी सोच में हम सब बराबर नहीं है।
निर्भया कांड का कवरेज एक अच्छी बात है। लेकिन ऐसा कवरेज बाकी घटनाओं का भी होना चाहिए। आखिर हर जान कीमती है। बराबर कीमती है। है या नहीं?
(वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की फेसबुक वॉल से साभार)