सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ‘कॉलेजियम सिस्टम’ को हटाने की मांग तेज़ हो रही है। यूँ तो इस मामले पर हमेशा से विवाद रहा, लेकिन अहम बात है कि ये मांग प्रमुख तौर पर सरकार की तरफ से उठाई जा रही है।

कुछ दिन पहले केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने ‘कॉलेजियम सिस्टम’ को भारतीय संविधान से अलग बताया था, उसे ‘एलियन’ बताया था। उनका कहना है कि न्यायधीश के लिए कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए नाम पर सरकार यूँ ही हस्ताक्षर नहीं कर सकती। अगर ऐसा होता है तो इसमें सरकार की भूमिका ही क्या रह जाती है।

‘टाइम्स नाउ’ की समिट में किरण रिजिजू ने पूछा कि आखिर कॉलेजियम प्रणाली किस प्रावधान के तहत निर्धारित की गई है।

अब सुप्रीम कोर्ट ने किरण रिजिजू द्वारा टीवी पर की गई टिप्पणी को खुद खारिज कर दिया है। कोर्ट ने आपत्ति जताते हुए कहा कि किरण रिजिजू को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। दरसल, ये पूरा मामला ही जजों की नियुक्तियों में देरी का है।

हालाँकि, केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच के इस विवाद पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इशारों-इशारों में अपनी राय दी है। उन्होनें कहा, “कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को जनता की मुसीबत कम करने के लिए एक साथ मिलकर काम करना चाहिए।

वैसे तो चेक और बैलेंस होना चाहिए, लेकिन एक साथ मिलकर भी काम करना चाहिए। विवाद का समाधान निकालने का तंत्र विकसित करना है, एक रास्ता निकालना है।”

‘कॉलेजियम सिस्टम’ की आलोचना करते हुए प्रोफेसर दिलीप मंडल लिखते हैं, “मेरे पिताजी 80 के दौर में केस लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुँचे। 4 सुनवाई के बाद फ़ैसला लेकर चले आए। तब सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग केस नहीं होते थे।

1993 से जजों ने जजों की नियुक्ति अपने हाथ में ले ली। कोलिजियम से निकम्मे रिश्तेदार जज बनने लगे। आज सुप्रीम कोर्ट में 72000 पेंडिंग केस हैं।”

दिलीप मंडल ने आगे कहा, “संविधान में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति महोदय का है। (Article 217). कुछ बदमाश जजों ने 1993 में ये अधिकार राष्ट्रपति से छीनकर अपने हाथ में ले लिया। इसके बाद से निकम्मे रिश्तेदार जज आने लगे। पेंडिंग केस 60 लाख हो गए।”

सवाल वही खड़ा होता है- आखिर कॉलेजियम प्रणाली क्या है? किस प्रावधान के तहत निर्धारित की गई? 1993 में क्या हुआ था?

दरअसल, कॉलेजियम सिस्टम न्यायाधीशों की नियुक्ति और ट्रांसफर की प्रणाली है। इसके बनने में संविधान के प्रावधान या संसद का हाथ नहीं है। बल्कि ये तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के आधार पर बनी है।

वर्ष 1993 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की थी। ये प्रणाली न्यायपालिकाओं में नियुक्ति और ट्रांसफर के काम को देखती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये CJI की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी। अपने जजमेंट में कोर्ट ने आगे कहा कि “परामर्श” का अर्थ वास्तव में “सहमति” है।

वर्ष 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का विस्तार कर इसे पाँच सदस्यीय कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इसमें CJI समेत चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे।

सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की अध्यक्षता CJI द्वारा की जाती है। हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही होती है। इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।

इससे पहले भी कई बार ‘कॉलेजियम सिस्टम’ पर सवाल खड़े किए गए हैं। इस सिस्टम को जातिवादी भी करार दिया गया है। देखना होगा कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच छिड़ी इस जंग का क्या समाधान निकलता है।

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