Tanya Yadav

भारत की सर्वोच्च न्यायलय ने आईपीसी की धारा 124ए के तहत आने वाले राजद्रोह कानून को गैर-ज़रूरी ठहरा दिया है।

मोदी सरकार द्वारा जमकर इस्तेमाल किए गए इस कानून पर सवाल खड़े करते हुए सीजीआई एनवी रमना ने पूछा कि क्या आजादी के 75 साल बाद भी हमें इसकी आवश्यकता है?

दरअसल, राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाली एक नई याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसका इस्तेमाल अंग्रेज़ों द्वारा आज़ादी के आंदोलन को दबाने और महात्मा गाँधी को चुप करवाने के लिए हुआ था।

इस कानून के कारण सरकार से असहमति रखने वाले लोगों का दमन किया जाता रहा है।

महात्मा गाँधी के साथ-साथ बाल गंगाधर तिलक पर भी राजद्रोह की धारा लगाई गई थी।

न्यायलय का ये भी कहना है कि जिन मामलों में ये कानून लगता है, उनमें सजा बहुत कम होती है। इसका मतलब है कि इस कानून को बेवजह इस्तेमाल कर दिया जाता है। सीजीआई रमना ने कहा कि इन मामलों में अफसरों की कोई जवाबदेही भी नहीं है।

चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस ऋषिकेश राय की पीठ ने याचिकाकर्ता को याचिका की एक प्रति अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को सौंपने का निर्देश दिया है।

सीजीआई ने अटार्नी जनरल से कहा कि धारा 66A के रद्द किए जाने के बाद भी उसके तहत हज़ारों मुकदमें दर्ज किए गए। कोर्ट की चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है।

‘स्क्रॉल’ की रिपोर्ट के अनुसार 96% राजद्रोह के मामले वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए हैं। ये मामले ज़्यादातर राजनीतिक नेताओं और सरकारों की आलोचना करने पर दर्ज किए गए।

इस खबर पर प्रतिक्रिया देते हुए लेखक शिवम् विज लिखते हैं, “मज़े की बात: यूके ने राजद्रोह कानून को वर्ष 2009 में ही समाप्त कर दिया था।”

दरअसल, इंग्लैंड में राजद्रोह कानून 17 वीं शताब्दी में लागू हुआ था। इसको सरकार के खिलाफ उठ रही आवाज़ों का दमन करने के लिए लाया गया था। इसके बाद अंग्रेज़ों द्वारा यही कानून भारत मे 19 वीं शताब्दी में लागू किया गया था।

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