जिस डालमिया को PM मोदी ने 25 करोड़ में देश की धरोहर यानी लाल किला गिरवी दे दिया, उस डालमिया के सामने सीना तानकर खड़े आदिवासी कह रहे हैं 1 इंच जमीन नहीं देंगे।

जब डालमिया जैसे उद्योगपतियों को ताजमहल जैसी विरासत सौंपने की के लिए सरकार तैयार हो जा रही है तब भी इस देश के मूल निवासी कह रहे हैं हम 1 इंच जमीन नहीं देंगे।

जब केंद्र और राज्यों की सरकारें चला रहे लोग उद्योगपतियों के सामने घुटने के बल बैठ जा रहे हैं तब भी ग्रामीण किसान आदिवासी कह रहे हैं जल, जंगल और जमीन बिकने नहीं देंगे।

जब हिंदुत्ववादी, गांधीवादी और समाजवादी कहलाने वाले तमाम नीति निर्माता, पूंजी के बाजार में सरेंडर हो जा रहे हैं तब ग्रामीण -किसान कह रहे हैं हम देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को झुकने नहीं देंगे। विकास के इस गैरबराबरी मॉडल को लागू होने नहीं देंगे।

खैर, पूंजीवाद की अच्छाइयों और बुराइयों पर लंबी चर्चा करने के बजाय।

सरकार से सांठगांठ करके लूट की प्रथा यानी क्रोनी कैपिटलिज्म पर डिबेट करने के बजाय।

बीजेपी ज्यादा किसान विरोधी है या फिर कांग्रेस या फिर बीजेडी जैसी राज्य स्तरीय पार्टी, इस अबूझ पहेली में उलझने के बजाय।

आज सीधा सीधा किसानों आदिवासियों की बात सुनते हैं।

उड़ीसा में जो चल रहा है इन आदिवासियों का विरोध प्रदर्शन, उसकी एक झलक देखते हैं।

हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे आदिवासी, कॉर्पोरेट और सरकार की साठगांठ के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। डालमिया समूह का ओसीएल वहां पर जमीन की लूट कर रहा है- ये बात दोहरा रहे हैं। इस ग्रुप को 1 इंच भी जमीन नहीं देंगे, ऐसा दावा कर रहे हैं।

इसी पैदल मार्च में शामिल एक महिला से जब छात्रा एवं सामाजिक कार्यकर्ता हेंगम ने बात की तो उन्होंने बताया –
“भूमि अधिग्रहण का जो प्रस्ताव हमें दिया गया था ग्रामसभा में हम लोगों ने मिलकर 2020 में ही उसे खारिज कर दिया है। इसके बावजूद अधिग्रहण का काम किया जा रहा है। इस पैदल मार्च के जरिए हम यह संदेश देना चाहते हैं कि जब तक हमारी सुनवाई नहीं होगी तब तक हम विरोध प्रदर्शन करते रहेंगे।”

इस चार दिवसीय पैदल मार्च में शामिल एक अन्य महिला से बात करने पर उन्होंने बोला- “ग्रामसभा में फैसला किया गया है कि OCL को हम लोग 1 इंच भी जमीन नहीं देंगे। इसके बावजूद OCL नहीं मान रहा है तो हमें विरोध प्रदर्शन करना पड़ रहा है। जब तक शासन-प्रशासन दखल नहीं देगा तब तक हम भी रुकेंगे नहीं।”

सोचिए-देश के किसी भी कोने में चार कश्मीरी पंडित बैठकर विस्थापन की व्यथा बताते हैं तो उनकी कवरेज पूरे देश का मीडिया करता है।

करना भी चाहिए, पीड़ितों की आवाज सुनना और लोगों के साथ-साथ सरकार को सुनाना मीडिया का काम भी है।

मगर उद्योगपतियों के खिलाफ हजारों हजार की संख्या में आदिवासी दिन रात विरोध प्रदर्शन करते हैं फिर भी मीडिया उनपर चुप्पी साध लेता है।

क्योंकि मामला सिर्फ पोलिटिकल माई बाप यानी सरकार का नहीं मालिक का हो जाता है। जिनकी कंपनियों के सहारे इनके चैनलों में करोड़ों का ही नहीं, अरबों का निवेश आता है।

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