आत्मनिर्भर अगर कोई हुआ है तो वह है इंडियन रेलवे. रेलवे ने अपनी सब ट्रेनों को निजी स्तर पर भी आत्मनिर्भर कर दिया है.
ट्रेनें खेत-सिवान मेंं घूमते छुट्टा सांड़ की तरह व्यवहार कर रही हैं. मन करता है तो बंबा की तरफ जाती हैं, मन करता है तो बाबूपुरवा की तरफ चली जाती हैं, मन करता है तो तलरिया मेंं पानी पीती हैं, मन करता है तो धूल उड़ाती हैं, कुछ नहीं मन करता है तो बगिया मेंं जामुन के पेड़ के नीचे लेटकर आराम करती हैं.
दो दिन के सफर के लिए लोग ट्रेन पर बैठे थे, 9 दिन तक ट्रेन में ही रहे. जो लोग बिहार के लिए चले थे, वे कहीं और पहुंच गए. ट्रेनें 30 घंटे का रास्ता 4 दिन में तय कर रही हैं. दो दिन का रास्ता 6 दिन में तय कर रही हैं.
इस दौरान श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में सात लोगों की मौत हो गई. गर्भवती मां ने ट्रेन में ही बच्चे को जन्म दिया. लोग कई दिनों तक भूखे रहे. जैसे यातना देकर लोगों को संदेश दिया गया है कि अब जीवन में सरकार से दोबारा मदद मत मांगना. आत्मनिर्भर बनो. जहां जाना है जाओ, खाना है खाओ. मरना है मरो. सरकार से मदद मत मांगो. मांंगना सरकार का काम है. सरकार वोट मांगेगी, अपनी आत्मनिर्भरता पर निहाल होकर तुम वोट डाल देना.
आप कल्पना कीजिए कि नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी को लेकर कोई विमान उड़े और पांच दिन तक आसमान में उड़ता फिरे! क्या ऐसा हो सकता है? असंभव है. यही स्पेशल ट्रेन वाली जनता अगर अमीर वर्ग की होती तो अब तक हाहाकार मच गया होता. लेकिन वे गरीब लोग चाहे पैदल जाएं, चाहे ट्रेन से या बस से, हर यात्रा उनके लिए नरकयात्रा समान ही है.
सब ट्रेनें आत्मनिर्भर हैं. सब कर्मचारी भी आत्मनिर्भर हैं. बिहार जाने वाली ट्रेन को ओडिशा पहुंचाकर भी मगन हैं. मंंतरी, संतरी, परधान सब मगन हैं. कोई नहीं पूछने वाला है कि ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों हुआ?
रेलमंत्री भी ट्विटर पर आत्मनिर्भर हैं. अपनी ही फर्जी तारीफों के पुल बांध रहे हैं और कोई टोक भी नहीं रहा है.
भारतीय रेलवे जो दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है, वह अब इतना आत्मनिर्भर हो गया है कि कंट्रोल से ही बाहर चला गया है.
ऐसा लगता है कि आत्मनिर्भरता वाला भाषण दरअसल निरंंकुशता और अराजकता का आह्वान था. वरना 40 ट्रेनों के रास्ता भटक जाने के लिए किसी की तो जिम्मेदारी तय की जाती. यहां कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. पूरा देश आत्मनिर्भर हो गया है. प्रधानमंत्री, रेल मंत्री, वित्त मंत्री, रेलवे, परिवहन, उड्डयन से लेकर दारोगा सिपाही तक सब आत्मनिर्भर हो गए हैं. किसी को किसी से न तो मतलब है, न कोई जिम्मेदारी है, न किसी हिम्मत है जो इस सरकार पर दबाव डाले.
ऐसा लग रहा है कि आत्मनिर्भर होने का मतलब है कानून, संविधान और लोकतंत्र की सारी जवाबदेहियों को बरखास्त कर देना.
(ये लेख पत्रकार कृष्णकांत के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)