गुजरात मॉडल का प्रोपेगैंडा देश भर ऐसा फैलाया गया कि आज लोग गुजरात से ज़्यादा गुजरात मॉडल के बारे में जानते हैं। विकास का एक दूसरा झूठा नाम गुजरात मॉडल भी है।गुजरात के लोग भी गुजरात मॉडल के झांसे में रहे हैं।

पिछले साल भी और इस साल भी जब वहां के लोग अस्पतालों के बार दर-दर भटक रहे हैं तब उन्हें वह गुजरात मॉडल दिखाई नहीं दे रहा। अपनी झुंझलाहट और व्यथा के बीच वे गुजरात मॉडल पर तंज करना नहीं भूलते हैं।

झूठ के इतने लंबे दौर में रहने के बाद आसान नहीं होता है उससे बाहर। क्योंकि सिर्फ झूठ ही नहीं है, सांप्रदायिकता के ज़रिए इतने ज़हर भरा गया है कि किसी सामान्य के लिए उससे बाहर आना असंभव होगा।

पिछले साल गुजरात के अस्पतालों के बाहर जो हाहाकर मचा था उसकी खबरें देश को कम पता चलीं। इस साल भी हाहाकार मचा है। जिस राज्य की जनता ने नरेंद्र मोदी को इतना प्यार किया उस राज्य की जनता बिलख रही है और प्रधानमंत्री बंगाल में गुजरात मॉडल बेच रहे हैं।

वहां के अस्पतालों से एक साल से इसी तरह की खबरें आ रही हैं मगर लोगों को सुधार के नाम पर हाहाकार और चित्कार मिल रहा है।

GMERS गांधीनगर अस्पताल में 52 साल के अश्विन अमृतलाल कनोजिया भर्ती होने के बाद लापता हो गए। परिवार के लोगों ने अस्पताल में काफी खोजा लेकिन जब नहीं मिले तो पुलिस के पास मामला दर्ज कराया।

इसके बाद स्टाफ, पुलिस और परिवार के लोगों ने अस्पताल में खोजना शुरू किया। अंत में अश्विन भाई चौथे तल के बाथरुम में मरे पाए गए। उनके शव से बदबू आ रही थी।

आप कल्पना कीजिए कि अस्पताल के एक बाथरुम में एक लाश रखी है। किसी को पता तक नहीं चलता है। अस्पताल में इतने बाथरुम तो होते नहीं। एक बाथरुम एक घंटे बंद रह जाए तो वहां भीड़ लग जाए।

अहमदाबाद मिरर की एक और ख़बर है। शहर के एक बड़े सरकारी अस्पताल GMERS SOLA MEDICAL COLLEGE AND HOSPITAL में स्टाफ नहीं है। यह अस्पताल छह नर्सों के भरोसे चल रहा है। इसके चार आईसीयू वार्ड में 64 बिस्तर हैं। आधे भर गए हैं।

एक नर्स के जिम्मे छह से सात मरीज़ की देखभाल है। किसी मरीज़ को आक्सीज़न सिलेंडर पर रखना है तो किसी का आक्सीज़न सिलेंडर हटा कर वेंटिलेटर पर रखना है। तो किसी को वेंटिलेटर से आई सी यू पर। ज़ाहिर है नर्सों पर काम का दबाव ज़्यादा होगा। यह सारे काम सेकेंड सेकेंड की निगरानी मांगते हैं। ज़रा सी देरी का मतलब जान का ख़तरा।

कायदे से एक मरीज़ पर एक नर्स होना चाहिए लेकिन छह मरीज़ पर एक नर्स है। कोविड के एक साल हो गए। इतना भी इंतज़ाम नहीं हो पाया। लेकिन विकास को लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ऐसे दावे करेंगे जैसे चांद धरती पर उतार दिया हो।

भावनगर के अस्पताल का वीडियो आपने देखा ही होगा। कोरोना के मरीज़ फर्श पर पड़े हैं। स्ट्रेचर पर ही इलाज हो रहा है। जो व्हील चेयर पर आया है उसी पर इलाज हो रहा है।यह रिपोर्ट प्राइम टाइम पर भी चली। प्रकाश भाई पटेल के बेटे बता रहे थे कि पिता जी से एक रात पहले फोन पर बात की थी। अगली सुबह फोन किया तो मोबाइल स्विच ऑफ था।

फिर अचानक अस्पताल से फोन आया कि पिताजी का देहांत हो चुका है।डोली पटेल ने बताया कि उनकी अशक्त रिश्तेदार को भर्ती किया गया था। जब RTPCR निगेटिव आया तब उनका ट्रांसफर दूसरे वार्ड में कर दिया गया।

वहां पीने का पानी तक नहीं मिला। मदद करने के लिए स्टाफ नहीं था। ख़ुद चल नहीं पाती थीं इसलिए गिर गई। हमें भी जाने नहीं दिया। इसे देखने के बाद एक दर्शक ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी।

“ये है गुजरात मॉडल” व्हाट्सएप के इनबॉक्स में यही दिख रहा था। जब अंदर गया तो दुखों का अंबार मिला। मैसेज भेजने वाले ने अपने फूफाजी का हाल बताया था। उनके फूफा जी किसी अन्य बीमारी के इलाज के लिए भर्ती हुए थे ।को इलाज के दौरान बताया गया कि कोरोन है।

मानसिक तनाव झेल नहीं पाए। दिल का दौरा पड़ गया। परिवार के सदस्यों का कहना है कि अस्पताल ने शव नहीं दिया। कहा कि कोरोना के कारण अंतिम संस्कार अस्पताल की तरफ से किया जाएगा। जब फोन आएगा तब श्मशान से अस्थियां ले लीजिएगा।

परिवार के लोग अस्थियां विसर्जित कर आए। दो दिन बाद किसी रिश्तेदार ने उसी अस्पताल में उनका शव देख लिया। उनका शव एक बंद कमरे के फर्श पर पड़ा था। जब पोस्टमार्टम हुआ तो पता चला कि कोविड से मौत ही नहीं हुई थी।

गुजरात के अख़बार और चैनल ऐसी ख़बरों से भरे हैं। गुजराती भाषा में काफी कुछ छप रहा है। गुजरात में भी गोदी मीडिया है लेकिन फिर भी वहां के कई पत्रकार जोखिम उठा रहे हैं। आम जनता के साथ जो हो रहा है उसे छाप रहे हैं और दिखा रहे हैं।

नेशनल मीडिया में आपको वहां से कम ख़बरें दिखेंगी। कारण आप जानते हैं।अंग्रेज़ी में यह सब कम छपता है। गुजरात से ले दे कर एक ही अखबार है अहमदाबाद मिरर। जिसमें दो चार ख़बरें ही होती हैं। तो पूरी सूचना न राज्य के लोगों को मिलती है और न राज्य से बाहर के लोगों को जिन्हें यह खुशफहमी है कि गुजरात की जनता किसी गुजरात मॉडल में जी रही है।

एक साल पहले जब गुजरात के अस्पतालों के भीतर और बाहर चित्कारी ख़बरें छपने लगी थीं तब भी लीपापोती के अलावा कुछ नहीं हुआ। अगर स्थायी बंदोबस्त किया गया होता तो आज यह हालत नहीं होती।

जब पता ही है कि वोट धर्म के नाम पर फैले ज़हर के नाम पर पड़ना है तो अस्पताल को ठीक करने की मेहनत कोई क्यों करे। दिन भर सांप्रदायिक भाषण दो। मैसेज फैलाओ। डिबेट कराओ। और लोगों को छोड़ दो अस्पताल के बाहर मरने के लिए।

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