आज तारीख है 10 दिसंबर, इतिहास में आज का दिन अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस या यूनिवर्सल ह्यूमन राईटस डे के नाम से दर्ज है। भारत में 28 सितंबर 1993 को मानव अधिकार कानून वजूद में आया और 12 अक्टूबर को 1993 में आयोग का गठन किया गया।

जब हम मानवाधिकारों की बात करते हैं तो हमारे ज़हन में एक ही बात आती कि हम आजाद हैं, हमारे अपने अधिकार हैं। हमें तमाम तरह की आजादी है, जैसे – खाने की आजादी, पहनने – ओढ़ने की आजादी, कहीं भी घूमने की आजादी इत्यादि।

मगर क्या इन अधिकारों की सुरक्षा हो पा रही है ? 

तमाम पहलुओं पर एक नज़र-

मानवाधिकार कानून को सबसे पहले वजूद में लाने वाला देश संयुक्त राष्ट्र है।1976 में संयुक्त राष्ट्र में इसकी स्थापना की। भारत ने इसे विलंब से ही सहीं पर इसे अपना लिया। हमारे संविधान में मानवाधिकार को जगह दी गई, इस कानून को तोड़ने वालों के सज़ा का प्रावधान भी है। पर आगे क्या ?

जैसे सिर्फ देश बनाने से ही कुछ नहीं होता उसे चलाने के लिए हमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कानून व्यवस्था आदि तमाम चीजों की जरूरत पड़ती है वैसे ही मानवाधिकार कानून बनाने और हर साल 10 दिसंबर को इस दिन का जश्न मनाने से कुछ नहीं होने वाला जब तक जमीनी स्तर पर काम न हो।

मॉब लिंचिंग है मानव अधिकार का हनन : हर बार हमारे द्वारा देश की कानून व्यवस्था को तमाम चीजों के लिए दोषी करार करना बंद कर दें तो बेहतर होगा क्योंकि देश के संविधान का मान रखना, उसके हिसाब से काम करना इन सब की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है। इस जिम्मेदारी को किसी और पर लाद कर हम मुक्त नहीं हो सकते।

मॉब लिंचिंग मानवाधिकार का हनन है, इसमें कोई भी दोराय नहीं है। इसका हनन करने वाले हम लोग ही हैं।

बीफ खाने के नाम पर एक इंसान को पूरी भीड़ मार जाती है, कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती। जब कोई कानूनी कार्रवाई करने की कोशिश करता है तो भीड़ उन्हें रौंद देती हैं – हत्या कर देती है। भीड़ कौन है? ये भीड़ किसी ओर देश की नहीं बल्कि हम से ही मिलकर बनी है।

शर्मिंदा करने वाली बात तो ये है कि हमारे इस क्राईम में हमारे नेता भी हमारा साथ दे रहे हैं। इसका उदाहरण हाल ही में बुलंदशहर में पुलिस कांस्टेबल की मौत पर आया है। एक नेता का कहना है कि पुलिस की मौत महज़ एक हादसा था, पर क्या वाकई वो एक हादसा था? इसका जवाब केवल आपके पास है।

बीफ खाने के नाम पर किसी इंसान की हत्या करना मानों उसके साथ- साथ अन्य लोगों से भी बीफ खाने का अधिकार छीन लेना और साथ ही चैतावनी देना है कि यदि आप भी बीफ खाएंगे तो आपके साथ भी यही होगा। क्या ये मानव अधिकार हनन नहीं है? अगर कोई चीज कानून के हिसाब से ग़लत भी है तो उसकी सजा क्या होगी ये कानून तय करेगा या भीड़ ?

जाति आधारित भेदभाव 


जाति के नाम पर भेदभाव : ये तो मानों हमारे देश की परंपरा है, जो बरसो से चली आ रही है। पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यकों की वो लड़ाई आज भी जारी है जिसे कभी बाबा साहेब भीमराव अम्बेड़कर ने छेड़ी थी। पिछड़ी जाति के अधिकारों के लिए अंबेडकर जी ने महड़ आंदोलन किया था। इस आंदोलन का न तो स्कूली किताबों में जिक्र है और न ही नेताओं के भाषण में। करीब एक साल तक चला यह आंदोलन का परिणाम आज भी शून्य है तथा आंदोलन में शामिल हुए हज़ार लोगों की मेहन्त समाज में निष्प्रभावी है। उच्च या छोटी जाति बनाने वाले हम हैं और इन जातियों में हम रहते है। ऊंची जाति के नाम पर लोगों का शोषण करने वाले हम ही हैं। साथ में बैठाना नहीं, समाज में समान अधिकार नहीं देना, उन्हें तमाम तरह की सुख सुविधाओं से वंचित रखना मानव अधिकारों का हनन और ये हमारे द्वारा ही किया जा रहे है।

बाल श्रम : बचपन यह वो उम्र है जब बच्चे जीवन का आनंद लेते हैं। खेलना – कूदना, स्कूल जाना इस उम्र की न सिर्फ खूबसूरती है बल्कि उनका अधिकार है। आर्थिक मजबूती न होने की वजह से कुछ बच्चे इन सब सुविधाओं से परे हैं। वो गैरेज में, हॉटलों में या लोगों के घरों में काम करके अपने घरवालों का पाट भरते हैं। हम क्या करते हैं? इन बच्चों की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें कम महनाताना में काम पर रख लेते हैं और उनका जम कर शोषण करते हैं। तो क्या ये बच्चों के अधिकारों का हनन नहीं है!

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लड़कियों पर पाबंदी : ज्यादातर लड़कियां न तो अपने मर्जी का कुछ पहन सकती है और न ही कहीं जा सकती है। आज भी ज्यादातर लड़कियों को परदे में रखा जाता है– शादी से पहले नहीं तो शादी के बाद। उनकी पढ़ाई छुड़वा दी जाती है क्योंकि लड़की ज्यादा पढ़- लिख कर क्या करेगी। ज्यादा पढ़ेगी तो श्यानी हो जाएगी, नौकरी करने की जिद्द करेगी और इसके बाद सब अपने मर्जी का करने लगेगी। बस इसी शंका की वजह से माता- पिता और परिवार उनसे उनकी जिंदगी छीन लेते हैं। क्या ये लड़कियों के अधिकारों का हनन नहीं है!

हमसे समाज बनता है और समाज से देश और जब देश में इतनी सारी त्रुटियां होने के बावजूद हम कैसे मानव अधिकार दिवस मना सकते हैं। सही मायनों में मानवाधिकार दिवस तब मनाया जाना चाहिए जब देश से ये सारी त्रुटियां खत्म हों और सबको समान अधिकार प्राप्त हो।

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