इसी रोटी के लिए उन्होंने घर छोड़ा था. रोटी कमाने शहर आए थे. यही रोटी अब उन्हें वापस लिए जा रही है. शहर ने रोटी देने से इनकार कर दिया. उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी. कहने लगे कि वापस अपने देश जाएंगे, नमक रोटी खाएंगे लेकिन यहां भूख से नहीं मरेंगे.

यह भी किसी के हिस्से की रोटी थी, जो एनएच24 पर बिखर गई. साथ में उसकी जिंदगी भी. जिसके वोट के तमाम तलबगार थे, उसकी जान बचाने में कोई मददगार न हुआ.

देश भर के राजमार्गों पर इंसान रोटियों के लिए तरस रहे हैं. कुछ रोटियों के साथ बिखर रहे हैं. कुछ पहुंच गए हैं, कुछ चले जा रहे हैं, कुछ नहीं पहुंचे, कुछ कभी नहीं पहुंचेंगे.

जो घर नहीं पहुंचे, उनके घर चूल्हा नहीं जला होगा. चिराग बुझा दिया गया होगा. रोटी नहीं पकी होगी. आगे के दिनों में उस मां के चूल्हे में रोटी कम पकेगी, जिसकी कोख से जन्मा इकलौता लाल घर नहीं लौटा. रोटी कमाकर कौन लाएगा?

इधर दिल्ली में ट्विटर पर वीडियो जारी हो रहा था कि ‘6 साल बेमिसाल’. बेमिसाल जरूर होगा. लाखों लोगों को मदद पहुंचाने से ज्यादा जरूरी था कि सत्ता मिलने की सालगिरह मनाना. सालगिरह है तो उत्सव होना चाहिए. लॉकडाउन है तो वर्चुअल ही सही. सैकड़ों लोगों को एक आदेश पर और कुछ करोड़ रुपये खर्च करके बचाया जा सकता था. वह खर्चा पांच सितारा रैलियों से ज्यादा न होता.

लेकिन मकसद वह है ही नहीं. मकसद जनता को अच्छा जीवन देना नहीं है. मकसद भूखे का पेट भरना नहीं है. मकसद तो 50 साल तक शासन करने का है. मकसद जनता को गुलाम बनाने का है.

छह साल चल रहे हिंदू मुस्लिम प्रोजेक्ट की हवा निकल गई. जिन हिंदुओं से कहा जा रहा था कि मुसलमान तुम्हारे दुश्मन हैं, उन्हें गरीबी लील गई. गुजरात से लौटे अमृत कुमार ने मोहब्बत सयूब की गोद में आखिरी सांस ली. सब छोड़कर चले गए थे, सयूब रुक गया था कि ऐसी हालत में कैसे चले जाएं. उसने अपना ट्रक छोड़ दिया. अमृत ने दुनिया छोड़ दी. सरकार ने इंसानियत छोड़ दी. अकेले सयूब ने बचा ली है. वह अमीर नहीं है, नौलखा फकीर भी नहीं है, लेकिन अच्छा इंसान है.

अमृत की तरह सैकड़ों लोग मारे गए हैं. उनके शव भारत के राजमार्गों पर ही हैं. कोई गिनती तक करने वाला नहीं है. अलग अलग अनुमान हैं. 137, 370, 500, 600… गरीब के जान की इतनी भी कीमत नहीं कि कोई गिनती कर ले.

किसी पर ट्रेन चढ़ गई, किसी पर बस चढ़ गई, किसी को तेज रफ्तार कार मार कर चली गई. वे अपनी अपनी रोटियों और खाली अंतड़ियों के साथ बिखर गए.

दिल्ली में खजाने की गिनतियां चल रही हैं. धन का धारावाहिक. पांच लाख करोड़, दस लाख करोड़, बीस लाख करोड़… हर दिन कुछ लाख करोड़ की झूठी कहानियां प्रसारित हो रही हैं. जिसका बेटा मर गया, वह बाप इन बीस लाख करोड़ पर मूतने भी नहीं आएगा. लेकिन कुछ करते हुए दिखना है. लाख करोड़ की कहानी ही कहना है.

पता चला है कि इन बीस लाख करोड़ में से ज्यादातर पांच छह कंपनियों और क्रोनियों की जेब भरी जानी है. नोटबंदी में जब 5 करोड़ लोगों की रोटी छिन गई थी, तब सबसे बड़ा क्रोनी दुनिया के अमीरों को टक्कर दे रहा था. उसके नोटों के बंडल आसमान छूने को बेताब थे.

इस महामारी में नया कारनामा होगा. कोयले की खदानें, रेलवे, एयरपोर्ट, एविएशन सब बेचे जाएंगे. देश अपनी जान बचाने में लगा है. लुटेरों ने लूट लेने के लिए जान लड़ा दी है. देश की रहनुमाई अब मैनेजरगिरी हो गई है. प्राइवेट लिमिटेड कंपनी चल रही है. ईस्ट इंडिया कंपनी देश चलाएगी. खुद से जहाज खरीद लो तो दुनिया घूम आओ. वरना पैदल चलकर मर जाओ.

लेकिन ये रोटियां! ये बिखरी हुई रोटियां अपने बिखर जाने की कीमत वसूलेंगी. याद रखिएगा. आपको भी चुकानी होगी.

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