प्रद्युम्न यादव

नब्बे के दशक में ऐसा पहली बार हुआ जब एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक ने हिंदी में दलित साहित्य पर पहली गोष्ठी कराई. उस गोष्ठी के माध्यम से लोगों को पहली बार पता चला कि हिंदी में कोई दलित साहित्य की धारा भी विकसित हो रही है. वो संपादक थे राजेन्द्र यादव और पत्रिका थी – हंस.

राजेन्द्र यादव ने उस दौर से लेकर अपने जीवन के अंत समय तक दलित लेखकों की रचनाओं को ‘हंस’ में प्रमुखता से छापा. दलित साहित्य पर ‘हंस’ के कई विशेषांक भी निकाले. साहित्य से इतर उन्होंने दलितों से जुड़े सामाजिक मुद्दों को भी चर्चा का विषय बनाया. अपने लेखन और संपादकीय कार्यों के ज़रिए उन्होंने हिंदी में दलित साहित्य को समझने और आगे बढ़ाने का काम किया जो उनसे पहले किसी संपादक ने नहीं किया था. इन सब की बदौलत दलित साहित्य हिंदी में स्थापित धारा बन पाया.

हंस के पुनर्प्रकाशन के बाद राजेन्द्र यादव ने उसे ऐसे मंच का रूप दिया जिस पर ऐसे कई नए कहानीकार सामने आये जिन्हें कोई जानता तक नहीं था. राजेन्द्र यादव ने उन्हें जगह दी. उनके इस दुस्साहस पर कई विवाद भी हुए लेकिन तमाम विवादों के बावजूद भी उन्होंने नए लोगों को मौका दिया.

इसी के चलते हंस के प्रकाशन के दौरान एक दौर ऐसा भी आया जब उसे “सरस सलिल” जैसी पत्रिका घोषित किया गया. असल में उस समय हंस में नई लेखिकाओं को मौके मिल रहे थे और वो खुलकर अपनी बात रख रहीं थी. ये बात कई पुरातन मानसिकता के लोगों को नागवार गुजर रही थी.

उन्होंने हंस की तीखी आलोचना की , कुंठित वक्तव्य दिए और गाली-गलौज के स्तर पर भी आये लेकिन राजेंद्र यादव उनके आगे नहीं झुके और हंस अपनी चाल चलता रहा.

अपने स्त्री सरोकारों के चलते हंस स्त्री विमर्श का भी बड़ा मंच बना. राजेन्द्र यादव ने तमाम लेखिकाओं और उनके मुद्दों को जगह देकर इस मंच से स्त्री विमर्श को हिंदी साहित्य की वो उड़ान दी जो हंस से पहले उसे कभी हासिल नहीं हो पायी थी.

अपने इसी अंदाज़ के चलते राजेंद्र यादव को हिंदी साहित्य का ” ग्रेटेस्ट शोमैन ” कहा जाता है और इसीलिए उनके द्वारा संपादित हंस एकमात्र ऐसी पत्रिका रही है जिसके मुद्दे साहित्य जगत की अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए बहस का मुद्दा हुआ करते थे.

स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के अतरिक्त अपने जीवन के अंत समय में राजेन्द्र यादव की रुचि आदिवासी मुद्दों में भी होने लगी थी. वो शायद उन्हें पटल पर लाना चाहते थे लेकिन उससे पहले ही उनका देहावसान हो गया.

राजेन्द्र यादव ने जब हंस का पुनर्प्रकाशन किया उससे पहले ही वो साहित्य की दुनिया में एक मज़बूत स्तंभ के रूप में स्थापित हो चुके थे. उनका नाम हिंदी साहित्य में नई कहानी नाम की धारा शुरू करने वाले लेखक त्रयी में शामिल था.

उनके उपन्यासों में – सारा आकाशः 1959 (‘प्रेत बोलते हैं’ के नाम से 1951 में) ,उखड़े हुए लोगः 1956, कुलटा : 1958 , शह और मात : 1959 , अनदेखे अनजान पल : 1963 , एक इंच मुस्कान : मन्नू भंडारी के साथ तथा कहानी संग्रह में – देवताओं की मृत्यु 1951 , खेल खिलौने 1953 , जहाँ लक्ष्मी कैद है 1957 , छोटे-छोटे ताजमहल 1961 , किनारे से किनारे तक 1962 प्रमुख थे.

इसके अलावा 1960 में उनका “आवाज़ तेरी है ” नाम का कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ. उनके द्वारा संपादित सबसे प्रमुख कहानी संग्रह ” एक दुनिया समानान्तर” भी 1967 में प्रकाशित हो चुका था.

इन सब उपलब्धियों के साथ राजेन्द्र यादव ने जब हंस का प्रकाशन शुरू किया तब उनकी उम्र लगभग 58 साल थी. इस उम्र में आकर लोग प्रायः साहित्यिक गतिविधियों में सुस्त पड़ जाते हैं और अपने पुराने लिखे पढ़े में कुछ नया तलाशना शुरू कर देते हैं.

लेकिन राजेन्द्र यादव ने इस उम्र में जो राह पकड़ी उसके बाद वह उनके साहित्यिक जीवन का सबसे उर्वर समय बन गया और उन्होंने हिंदी साहित्य और विमर्श को बिल्कुल अलग ही दिशा दी.

राजेन्द्र यादव के बारें दो बातें ऐसी हैं जो सिर्फ उन्हीं के बारे में हो सकती हैं. पहली ये कि उनके जैसा लोकतांत्रिक व्यक्तित्व हिंदी साहित्य जगत में अभी तक नहीं हुआ है और दूसरी ये कि उन्होंने जितने मौके युवा और नए लोगों को दिए उतने आज तक किसी साहित्यकार ने नहीं दिए.

हंस में वो उन नकारात्मक टिप्पणियों को भी छापते थे जो किसी संपादक के लिए छापना मुश्किल था. वो एक ही प्लेट में प्रशंसा और गालियों के स्तर की आलोचना को भी करीने से सज़ा कर साहित्य के वैविध्य को बरकरार रखते थे.

उनका जीवन भी ऐसा ही था. वह अपने से सहमत व असहमत और पसंद व नापसंद करने वाले सभी लोगों की प्रिय शरणस्थली थे. यही वजह है कि उनके जाने के बाद उनके समर्थक और विरोधी सभी ने सूनापन महसूस किया.

उनकी मृत्यु के दिन साहित्य जगत का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जो दुखी न हुआ हो. उस दिन किसी ने अपना प्रिय नायक खोया तो किसी ने अपना प्रिय खलनायक. सभी भीतर से कम या ज्यादा मात्रा में रिक्त थे.

उस ग्रेटेस्ट शोमैन का जाना आज भी दुखी करता है.

(सोशलवाणी: ये लेख प्रद्युम्न यादव की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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