Lohia

अंग्रेजों की गुलामी मंजूर नहीं थी तो उन्होंने पूरी ताकत से विरोध की आवाज उठाई।

एक बार नहीं, दो बार नहीं, बार-बार उनकी गिरफ्तारी हुई।

बर्फ की सिल्ली पर लिटाया गया, पीटा गया, सताया गया।

आंख की रोशनी गई, दांत गए, और कई अंग भंग हो गए।

फिर पूरी आज़ादी मिली कांग्रेस को, आधी आज़ादी मिली देश को, मगर उनकी लड़ाई जारी रही।

उन्हें नेहरू के दरबार की गुलामी भी नहीं मंजूर थी इसलिए उन्होंने फिर से उसी ताकत से विरोध की आवाज उठाई।

फिर से गिरफ्तारी हुई, कई बार गिरफ्तारी हुई, फिर से मुसीबतें आईं कई सारी दिक्कतें आईं।

उन्हें जातिवादी कहा गया, नाज़ीवादी कहा गया, नेहरू द्वारा तो उन्हें सड़ियल और अड़ियल भी कहा गया।

राजनीतिक दमन हुआ, चरित्र का हनन हुआ और कई तरह का लांछन लगा।

फिर भी नहीं छोड़ी उन्होंने, अपनी राह और चाह।

वो आजीवन समाजवादी रहे, प्रगतिशील नारीवादी रहे, गांधी के आलोचक मगर थोड़े गांधीवादी रहे।

बेहद क्रांतिकारी मगर थोड़े सुधारवादी रहे, हर बार हर हाल विशुद्ध जनवादी रहे।

बेशक वो डॉ राम मनोहर लोहिया ही थे जो डॉ अंबेडकर की तरह गैर कांग्रेसवादी रहे।

लड़े आखरी दम तक, फौलादी रहे समाजवादी रहे।

डॉ राममनोहर लोहिया की जन्मतिथि है 23 मार्च, जिसे वो खुद तो कभी मनाते नहीं थे। क्योंकि इसी दिन फांसी पर लटकाया गया था भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के धुर विरोधी रहे इन तीन वीरों को।

डॉक्टर लोहिया की मृत्यु 1967 में हो गई यानी तब तक भारतीय जनता पार्टी नाम की कोई पार्टी ही नहीं थी। और जनसंघ कहीं सत्ता में नहीं थी, तो सिलसिलेवार विरोध का कोई तुक ही नहीं बनता है। नहीं तो आज कोई टीवी एंकर बता रहा होता कि वह कितने धर्म विरोधी थे और कितने देशद्रोही।

फर्ज कीजिए कि बीजेपी के स्वर्णिम काल में लोहिया होते तो आदतन करते नरेंद्र मोदी की करोड़ों की फिजूलखर्ची पर सवाल, जैसे कि नेहरू की फिजूलखर्ची पर सवाल किया करते थे।

वो भाजपा से मांगने लगते पिछड़ों के लिए 60% आरक्षण जैसे कि कांग्रेस के वक्त में नारे लगाए करते थे।

वो बीजेपी की वसुंधरा राजे और स्मृति ईरानी के सामने चुनाव में लड़ा देते किसी मजदूर को, किसी मेहतरानी को जैसे ग्वालियर की महारानी के खिलाफ चुनाव लड़ा चुके थे, लोकतंत्र में महारानी और मेहतरानी को बराबर बता चुके थे, लोगों को इस बात का एहसास भी दिला चुके थे।

वो बनारस से खुद लड़ जाते पीएम मोदी के खिलाफ चुनाव जैसे कि फूलपुर जाकर नेहरू को कड़ी चुनौती दे चुके थे।

और सबसे बड़ी बात अब तक बना जाते ना जाने कितने मुलायम सिंह यादव जैसे जमीनी नेता, जिनपर वो बेहद भरोसा किया करते थे।

खैर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुलायम सिंह और उनकी पार्टी ने भी बहुत कुछ किया है डॉ लोहिया के नाम। पार्कों स्मारकों, संग्रहालयों, पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों में चमकाई गई उनकी तस्वीर। चुनावों में, रैलियों में, जनसभाओं में, गाई गई, बतलाई गई, लोहिया की तकरीर।

आधी-अधूरी ही सही मगर सबसे बड़े राज्य में खींच दी गई है लोहिया के नाम की एक लंबी लकीर।

मगर उत्तर प्रदेश ही पूरा देश नहीं है। अकादमिक जगत हो या राष्ट्रीय मीडिया, यहां लोहिया की जगह कोई विशेष नहीं है। उन्हें साजिशन प्रोजेक्ट किया गया है जातिवादी नेता के तौर पर, क्योंकि वो जातिवाद के खिलाफ मुखर रूप से बोला करते थे। जाति छोड़ो जनेऊ तोड़ो का आंदोलन चलाया करते थे। उन्हें बताया गया है उग्रवादी क्योंकि वह 5000 साल की गुलामी के खिलाफ विद्रोह करने की महिलाओं से अपील करते थे, उनमें हिम्मत भरते थे।

संस्कारी लोग तो उन्हें मानते होंगे कतई बेशर्म, क्योंकि धोखे और जबरदस्ती के सिवाय वो मर्द और औरत के बीच किसी भी तरह के रिश्ते को जायज मानते थे। यौन संबंधों पर बेहद खुले विचार रखते थे। और साधन संपन्न समाज ने तो कभी नहीं लगाया उन्हें अपने गले, क्योंकि पूरे जीवन वो खेतिहर किसान मजदूर की बात करते रहे, गैर बराबरी मिटाने की जिद करते रहे।

नेहरू और गांधी के विरोधी थे तो दक्षिणपंथी भी कर सकते थे लोहिया की पूजा, मगर तमाम किताब और लेख के जरिए वो इनके इरादों की भी पोल खोल देते थे। पिछड़ों के लिए 60% आरक्षण मांगकर उनका भी खेल बिगाड़ देते थे। भारत विभाजन के लिए जनसंघ को जिम्मेदार बताकर सांप्रदायिक शक्तियों पर अपना स्टैंड क्लियर कर देते थे।

लोहिया आदतन मजबूर थे, हर सड़ी हुई व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने लगते थे।

तभी तो नेहरू ने पलटकर उन्हें ही सड़ियल कह दिया। हालांकि वो सड़ियल नहीं अड़ियल थे।

उन्होंने संसद में कहा आम आदमी के लिए रोजाना तीन आना और नेहरू के लिए 25000 का खर्च!

ये कैसी व्यवस्था है, ये कैसी गैर बराबरी है, ये कैसी विडंबना है।

भला किसी शासक को पसंद होंगे ऐसे सवाल उठाने वाले?

सच को सच और झूठ को झूठ बताकर आईना दिखाने वाले?

मगर शासकों की ऐसी नापसंदी से,

पुलिसिया दमन और घेराबंदी से,

जेल-जांच और तमाम नजरबंदी से,

जो ना डरें आगे बढ़ें, वही लोग कहलाते हैं लोहिया के लोग।

समाजवादी जनवादी नारीवादी लोग।

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