
माँ के गर्भ में पिता को खो देने वाले शेख़ अब्दुल्ला ने उस ज़माने के बेहद मुश्किल हालात में पढ़ाई की, डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन डोगरा शासन में वजीफा नहीं मिला। लाहौर से बीएससी की और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम एस सी।
उसी दौरान भारत में चल रहे आज़ादी के आन्दोलन से परिचित हुए और गाँधी के मुरीद लौटे तो डोगरा शासन में उनके लिए कोई नौकरी नहीं मिली। स्कूल में मुदर्रिस हुए।
कश्मीर के उन हालात में प्रतिरोध संगठित करने के लिए ‘रीडिंग रूम पार्टी’ बनाई जिसमें पढ़े लिखे मुस्लिम नौजवान एक जगह इकट्ठे होते और कश्मीर तथा देश दुनिया के हालात पर बात करते।
पहल ‘मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ तक पहुँची जो बाद में नेहरू के प्रभाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस बनी और कश्मीर के सभी वर्गों तथा समूहों की प्रतिनिधि बनी। आगे का क़िस्सा लंबा है, हाल में नेहरू पर लिखे लेख में कुछ आया है कुछ किताब में लेकिन एक बात जो निर्विवाद है वह यह कि हज़ार कोशिशों के बावजूद शेख़ साहब कश्मीर के आमजन में हमेशा लोकप्रिय रहे।
जब सड़कों पर उतरे जनता का हुजूम उनके साथ आया। मज़हबी हिंसा पनपने तक न पाई उनके वक़्त में, अमीरों से ज़मीन छीन कर ग़रीबों को दी और कश्मीर जन को उनका सम्मान वापस दिलाना सदा उनके एजेंडे में सबसे ऊपर रहा। उनकी जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ उस दौर का जैसे इतिहास है कश्मीर का।
किताब उर्दू और अंग्रेज़ी में उपलब्ध है कश्मीर के गुलशन प्रकाशन के पास। खुशवंत सिंह ने इसका सम्पादन कर अंग्रेज़ी में पेंग्विन से छपवाया था लेकिन आश्चर्य कि हिंदी में किसी ने उसे लाने की कोशिश नहीं की। ग़ालिब और इकबाल के अशआर से भरी यह जीवनी उनकी संवेदनशीलता का भी एक आईना है।
ऐसा भी नहीं कि ग़लतियाँ उनसे नहीं हुईं। उन पर भी पर्याप्त लिखा पढ़ा गया है… लेकिन शेख़ का व्यक्तित्व उन सबके बावजूद दक्षिण एशिया के उस दौर के नेताओं में विशिष्ट है। उन्हें नज़रअंदाज़ करके कश्मीर तो क्या भारत का भी आधुनिक इतिहास नहीं लिखा जा सकता। आज के दिन उन्हें श्रद्धांजलि और सलाम।
– अशोक कुमार पाण्डेय (चर्चित किताब कश्मीरनामा के लेखक)