सविता आनंद

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ- आज़ादी से अमृत काल तक

भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ सुरों के ऐसे जादूगर थे जिनकी कला और सादगी के सामने हर किसी ने सम्मान से सिर झुकाया। उनकी पारंपरिक सोच, विनम्रता और राष्ट्रप्रेम, हर सम्मानित, पुरष्कृत व्यक्ति को आगे थोड़ा और झुक जाने को प्रेरित करती है।

देश की साझी संस्कृति और गंगा जमुनी तहजीब के वे बेमिसाल उदाहरण थे उनका संगीत ही उनकी इबादत थी, आइए आज उनकी 16वीं पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करते हुए शहनाई के उस दौर को पुनः जीवंत करते हैं, जिसके लिए वे ताउम्र जिए।

जब राग़ काफ़ी की धुन से सराबोर हुई आज़ाद भारत की वो पहली सुबह

“लाल किले पर बहुत बड़ा जलसा होना था, पंडित नेहरू ने हमें बुलाया, बहुत मोहब्बत रखते थे हमसे – कहा कि तुम इस ऐतिहासिक दिन का शुभारम्भ अपनी शहनाई की मंगल ध्वनि से करोगे. जलसे की रूपरेखा यह थी कि आगे शहनाई बजाते हुए हमें चलना था और पूरा मंत्रिमंडल पीछे. हम उखड़ गए, हमने कहा कि हम खड़े होकर चलते हुए कैसे बजा सकते हैं साफ मना कर दिया।

नेहरू जी ने गुस्से में कहा कि बजाना तो पड़ेगा. हमने कहा कि आज़ादी क्या आपके लिए ही आयी है, हम आज़ाद नही? ये हमारी आज़ादी है कि हम इस तरह बजाने से मना कर रहे हैं। नेहरू जी हंसते हुए बोले कि बिस्मिल्ला ये भी तो तुम्हारी आज़ादी है कि तुम आगे-आगे चलोगे और हम पीछे-पीछे। सारा मलाल बह गया और हमने बजाया। यकीन मानिए देखने लायक नज़ारा था”

ये बात उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब ने उस ऐतिहासिक दिन को याद करते हुए कही जिसके 75 वर्ष पूरा होने पर आज देश में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। लेकिन आज़ादी की वो पहली सुबह सबसे ख़ास है जब देश ने उस्ताद की शहनाई के साथ आज़ादी का जश्न मनाया था।

इस जश्न में शामिल होने के लिए उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जाहर लाला नेहरू ने ख़ास निमंत्रण पर बुलवाया था।

नेहरू जी की ईच्छा थी कि अज़ादी की सुबह शहनाई से हो और इन्होंने उसी तरह से बिस्मिल्ला कर लम्हे को यादगार बना दिया।

1947 में आज़ादी के समारोह के अलावा उस्ताद ने पहले गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 1950 को भी लालकिले की प्राचीर से शहनाई वादन किया था। तब से हर साल उस्ताद की शहनाई भारत के स्वतंत्रता दिवस पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा बन गई। परन्तु आज़ादी के अमृत काल में उनकी स्मृति तक नदारद है। ये देश का दुर्भाग्य है।

कैसे अलग थे बिस्मिल्ला

ये भी उल्लेखनीय है कि जब भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय से उठकर इस देश की विराट और साझी संस्कृति की बात होगी, तब उस्ताद बिस्मिल्ला की बात होगी. एक मुसलमान जो गंगा स्नान कर नमाज़ पढ़ते और उसके बाद काशी विश्वनाथ मंदिर पहुंच कर घंटों रियाज़ करते, सामाजिक सद्भाव का संदेश ही दे रहे थे।

ख़ाँ साहब हमेशा कहते थे, सुर भी कभी हिंदू या मुसलमान हुआ है, सुर तो सुर है.

संगीत और शहनाई से अगाथ प्रेम और साधना उनकी इबादत में शामिल थे. काशी विश्वनाथ के मंदिर के पट उनकी शहनाई की धुनें सुनने के बाद खुलते थे इस और इस एहसास से उस्ताद बहुत गौरवान्वित होते थे।

बेनिया बाग के अपने मकान की ऊपरी मज़िंल के एक छोटे से कमरे में उस्ताद ने अपना पूरा जीवन जीया, जिसमें सिर्फ एक चारपाई , कुर्सी, छड़ी, छाता, पानी का घड़ा, टेबल फैन, ट्रंक और एक टेलीफोन था. इसी कमरे में हजारों लोग उस्ताद से मिलने आते उनसे बतियाते, उनके सादेपन और व्यक्तिव से प्रभावित होते और कुछ कर गुजरने का वादा करके चले जाते, पर फिर कभी लौट कर न आते।

ये वो दौर था जब उस्ताद दुनिया भर में कामयाबी का परचम लहरा रहे थे, जब अमेरिका में बसने का उन्हें न्यौता आया था और जब बनारस और बिस्मिल्ला एक हो गए थे।

आज उस्ताद के घर के सामने गंदगी का ढेर है और बारिश का पानी जमा है, जो बनारस को क्योटो के तबदील करने की कहानी बयां करता है. पिछले दिनों भी इस मार्ग का बुरा हाल था तब सोशल मिडिया में चर्चा के चलते कुछ लीपा-पोती की गई लेकिन आज स्थिति उसे भी बदतर हो गई है।

21 मार्च 1916 को बिहार के डुमराऊँ में जन्में उस्ताद 21 अगस्त 2006 के दिन दुनिया को अलविदा कह गए और पीछे छोड़ गए एक अनमोल धरोहर जिसे हमें मिलकर संजोना होगा ताकि वक्त के साथ धूमिल होती इन यादों को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजा जा सके और उनमें नई चेतना का सृजन किया जा सके।

आज़ादी के अमृतकाल में एक बार फिर हड़हा सराय का वो मकान आज भी उस बीते दौर को याद करता है जब तत्कालीन सरकारों ने उनसे कुछ वादे किए थे जो आज भी अधूरे हैं। बीता हुआ कल वापस न आएगा पर अतीत के पन्नों में हमारी विरासत कहीं पुस्तकों तो कहीं इमारतों के कैद हो जाएंगी।

आइए उस्ताद की पुण्यतिथि पर संकल्प लें इस देश की साझी संस्कृति, कला और विरासत को मिटने न देंगे, अज़ादी की सुबह को यादगार बनाने वाले कलाकार की यादों को धूमिल न होने देंगे ।

सविता आनंद (लेखिका व स्तम्भकार)
अध्यक्ष
(भारतीय शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक संरक्षण संस्था
विरासत-ए-हिन्दुस्तान
दिल्ली)
पूर्व निजी सचिव
(मंत्री दिल्ली सरकार)

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