Ashwini Yadav
मालूम हो कि इस बार गंगा में नहावन नहीं हुआ है, और ये जो तस्वीर में न्यूज वाले गंगा किनारे रेतों में दबे कुछ रामनामी दिखा रहे हैं तीन साल पहले का वो नहावन के वक़्त आने वाले लोगों के लिए पंडे लोग व्यवस्था करते हैं। छाँव के लिए,कपड़े बदलने के लिए आदि। सब पंडो के अलग अलग तरह सिंबल्स वाले झंडे होते हैं जिससे उस क्षेत्र के लोग उसी पंडे के पास जाते हैं।जहाँ तख़्त वग़ैरह लगे रहते हैं बैठने के लिए, छाँव होता है। नहावन के उपरांत लोगों द्वारा इस्तेमाल किया गया सामान, कूड़ा करकट आदि घाट पर बिखरा पड़ा होता है।
मान्यता के अनुसार लोग अपने मृत परिजनों के पुराने कपड़े वग़ैरह भी लाते हैं वहाँ पर दफ़्न/प्रवाहित करने के लिए। ये माना जा सकता है कि दो चार लोगों को भी मृत्यु के बाद दफ़नाया गया हो लेकिन वो इधर उधर कहीं पर भी दफ़नाए गए होंगें लाइन से नहीं होता था जैसा इस बार लाश कतार में बिछी हैं।
इस कोरोना महामारी के वक़्त चार छह नहीं बल्कि सैकड़ों की संख्या में हैं।

इससे पहले भी गंगा किनारे दफ़्न करने की प्रथा रही है लेकिन न के बराबर ही।क्योंकि ख़र्च इतना भी ज़्यादा नहीं होता था कि लोग दे ना पायें। चाहे गाँव के लोग हों या शहर के कोई भी परिवार किसी को दफ़नाने के लिए इतनी दूर नहीं लेकर आता है यदि उसे दफ़नाना ही होता है तो किसी खेत, बाग आदि में दफ़्न करके उसके ऊपर (क़ब्रनुमा) एक स्मारक चिन्ह बना दिया जाता है। जबकि गाँव में यदि किसी ग़रीब की मृत्यु हो जाती है  तो गाँव के लोग मिलकर शव को घाट तक ले आते हैं और मुखाग्नि दी जाती है।

जैसा कि सबको पता है कि सरकारों द्वारा बहुत पहले से ही ये आदेश ज़ारी किया गया है कि गंगा में किसी भी तरह की सामाग्री को प्रवाहित करना दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है इसलिए लोग चोरी छुपे ही मूर्ति, फूल माला आदि विसर्जित करते हैं या फिर घाट के किनारे छोड़ जाते हैं। दीपावली के अगले दिन हज़ारों की संख्या में मूर्तियां फाफामऊ ब्रिज पर लोग छोड़ जाते हैं, जिसे नगर निगम द्वारा साफ किया जाता है।

अभी जो लाशें बिहार के गंगा में मिली थीं वो उत्तर प्रदेश से ही बहकर गई थीं इसको सिद्ध करने के लिए बिहार पुलिस ने उत्तर प्रदेश में छापा मारा और एक वीडियो ज़ारी किया जिसमें बिहार पुलिस का दावा है कि एक शख़्स कई लाशों को गंगा में डाल चुका था और कई लाशें डालनी बाक़ी थीं, पूछने पर बताया कि चौकी वाले साहब फेंकने के लिए बोले हैं, इसके लिए उस आदमी को पैसे भी मिलते थे। गौरतलब है कि ये लाशें कोविड से हुई मौतों वाली थीं। दोनों राज्यों की सरकारें एक दूसरे पर आरोप लगाती रहीं और मुआमला ऐसे ही दबा दिया गया।

अभी 2018 की तस्वीर को फाफामऊ घाट का बताते हुए जागरण में छापा जाता है कि पहले भी लाशें दफ़्न की गईं हैं आम दिनों में, अब कोविड के समय पर दफ़नाया जाना कोई बड़ी बात नहीं है। तीन साल पहले भी ऐसी ही गंगा थीं जैसी की आज हैं, ये कहा जा रहा है जागरण के द्वारा। जिसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री शेयर करते हुए बताया रहे हैं कि ये गंगा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है किनारे के घाट ऐसे ही थे।

अब यहाँ सवाल ये उठता है कि आपका नमामि गंगे प्रोजेक्ट का क्या हुआ ? गंगा तो साफ नहीं हुई और किनारे वैसे के वैसे ही गंदे हैं। एक अलग मंत्रालय बनाना और सैकड़ों करोड़ केवल प्रचार में बहा देने का फायदा क्या मिला ?
सरकार इस पर बात नहीं करती है केवल छवि सुधारने के लिए ही परेशान है।

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