सविता आंनद

डॉ. आंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस – कृषि सुधारक के रूप में आंबेडकर की भूमिका

भारतीय संविधान के जनक, समाज सुधारक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, दलितों के मसीहा, महान राजनीतिज्ञ भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के नाम से पहले जितने भी अलंकार सम्मिलित किये जाते हैं शायद ही दुनिया में किसी अन्य व्यक्ति के नाम के साथ जोड़े जाते हों. इसी बात से उनके कद का अंदाजा लगाया जा सकता है. आज उनके महापरिनिर्वाण दिवस पर सभी उन्हें याद कर श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे. आज ही के दिन यानि ६ दिसंबर १९५६ को अपने दिल्ली स्थित निवास स्थान २६ अलीपुर रोड पर उन्होंने अंतिम सांस ली और अब यह आंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक के रूप में प्रचलित है.

गौरतलब है कि यह सिरोही के महाराज का वही घर था जहाँ १ नवंबर १९५१ को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद डॉक्टर भीमराव आंबेडकर रहने आ गए थे. यहां वह अपने अंत समय तक रहे थे.

देश साल भर अलग-अलग मौकों पर बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के योगदान को याद करता है और कई प्रतिज्ञाएं फिर से दोहराई जाती हैं लेकिन आज हम उनके एक अलग पहलू को जानने समझने की कोशिश करेंगे. क्या वाकई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सभी नागरिकों को बराबर दृष्टि से देख पाए हैं और संविधान को सभी जाति, वर्ग, समुदाय, लिंग के हिसाब से पूर्ण रूप में लागू कर पाएं हैं? शायद नहीं, ऐसा अभी तक नहीं हो पाया क्यूंकि अगर ऐसा होता तो समय-समय पर सरकारों के विरुद्ध जन आंदोलन न होते और सरकारों के प्रति सड़कों पर जन समूहों में रोष न दिखाई देता. ऐसा ही एक आंदोलन बीते २६ नवंबर २०२० से दिल्ली की सीमाओं पर डटे लाखों किसान कर रहे हैं.

यह आंदोलन यूँ तो पिछले दस दिनों से सक्रिय हैं लेकिन जब से मोदी सरकार द्वारा आनन फ़ानन में नया कृषि कानून लागू किया तब से इसके विरोध में प्रतिक्रियाएं जारी हैं और अब तो किसान केंद्र की सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई के लिए पूरी तरह से कमर कस चुके हैं, जिसमें अब तक हुई पाँच दौर की बैठकें बेनतीजा रही और कोई समाधान नहीं निकल सका. अब ९ दिसंबर को किसानों और केंद्र सरकार के बीच छठे दौर की बाचतीच होगी. आज हम यहाँ किसान आंदोलन की जानकारी इसलिए साझा कर रहे हैं कि हम यह जानने की कोशिश करेंगे बाबासाहेब के कृषि और किसान के सम्बन्ध में क्या विचार थे.

ब्रिटिश राज में रैयतवाड़ी व्यवस्था के विरुद्ध आंबेडकर
यूँ तो किसान आंदोलन ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही होते रहे हैं, आज हम किसानों की समस्याओं और बाबा साहेब द्वारा उनके समाधान पर चर्चा करेंगे. ब्रिटिश हुकूमत के समय में रैयतवाड़ी व्यवस्था का चलन था जिसमें भूमिदार द्वारा सरकार को लगान देने की प्रक्रिया थी, लगान न देने पर उसे भूमि से बेदखल कर दिया जाता था. यह व्यवस्था सबसे पहले १७९२ ई. में मद्रास प्रेसीडेंसी के बारामहल जिले में लागू की गई थी. पूंजीवादी विचारधारा तथा उपयोगितावादी विचारधारा मुख्य तौर पर इस व्यस्था के लिए जिम्मेदार थी. इसमें सीधे तौर पर भू-राजस्व का निर्धारण भूमि की उत्पादकता पर न करके भूमि पर किया जाता था, जो किसानों के लिए हितकारी नहीं था क्यूंकि इसमें दर इतनी ज्यादा थी कि किसान के पास कुछ भी अधिशेष नहीं बचता था. नतीजतन किसान महाजनों के चंगुल से निकल नहीं पाते थे और इस तरह महाजन ही एक कृत्रिम जमींदार के रुप में उभर कर आने लगे थे.
इसी सन्दर्भ में जब सरकार द्वारा रैयतवाड़ी भूमि को बड़े भू-स्वामियों को देने के लिये संसोधन बिल पेश किया गया तो बाबा साहेब आंबेडकर ही इसका विरोध करने वालों में सबसे पहले थे. इस पर उन्होनें कहा था कि भू-स्वामित्व को अगर इसी तरह बढ़ाया जाता रहा तो एक दिन ये देश को तबाह कर देगा.

बाबा साहेब के कृषि संबंधी विचार स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ नामक लेख में वर्ष १९१८ में प्रकाशित किए गए थे. इसे ही आधार बनाते हुए बम्बई विधानमंडल में १० अक्टूबर १९२७ को छोटे किसान राहत विधेयक पर बहस के दौरान पेश किया और उन्होंने तब यह तर्क दिया था कि खेत की उत्पादकता और अनुत्पादकता उसके आकार पर निर्भर नहीं होती बल्कि किसान के आवश्यक श्रम और पूंजी पर होती है. उन्होंने कहा था कि समस्या का निवारण खेत का आकार बढ़ाकर नहीं बल्कि सघन खेती से हो सकेगा. तब उन्होंने सामान्य क्षेत्रों में सहकारी कृषि को अपनाने की सलाह दी थी.

ऐसे ही एक खोती प्रथा महाराष्ट्र में भी थी जिसमें बिचौलिए रखे गये थे, जिन्हें खोत भी कहा जाता था. अमूमन जिन छोटे किसानों के पास ज़मीने होती भी थी वह उनके मालिक नहीं थे. किसानों से टैक्स वसूली करने के लिए खोत को हर तरह की छूट होती थी जिससे किसानों पर ज़ुल्म बढ़ता जाता और उन्हें कभी-कभी अपनी ही ज़मीन से बेदखल कर दिया जाता था. इसके उन्मूलन के लिए भी बाबा साहेब आंबेडकर ने १९३७ में बम्बई विधानसभा में बिल प्रस्तुत किया और उन्हीं के प्रयासों से खोती प्रथा का खात्मा हुआ और किसानों को उनका हक़ मिला.

आंबेडकर भूमि, शिक्षा, बीमा उद्योग, बैंक आदि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे ताकि न कोई जमींदार रहे, न पट्टेदार और न ही कोई भूमिहीन. १९५४ में भी बाबा साहेब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण के लिए संसद में बहस करने के दौरान आवाज उठाई थी पर कांग्रेस ने उनकी नहीं सुनी.

खेती, किसान और कृषि अर्थ व्यवस्था पर आंबेडकर के विचार मुख्य रूप से भूमि सुधार पर ही केंद्रित हैं और निम्न दस्तावेज़ों में दर्ज हैं:
छोटे किसान राहत विधेयक पर बहस
स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़
स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़
बाबासाहेब का मानना था:
कृषि सम्बंधित उद्योग सरकार के अधीन होना चाहिए.
मूल और आवश्यक उद्योग सरकार के नियंत्रण में होने चाहिए.
बीमा व्यवसाय पर सरकार का एकाधिकार होना चाहिए.
सरकार अधिग्रहण की गई भूमि को मानक आकार में भाग कर खेती के लिए ग्रामवासियों को पट्टे के रूप में बाँटेगी. पट्टाधारी गाँव, सरकार को खेत के किराए का भुगतान करेगा और पैदावार को परिवार में निर्धारित तरीक़े से बाँट लेगा.

कृषि भूमि को जाति धर्म के आधार पर बिना भेदभाव के इस प्रकार बाँटा जाएगा कि न कोई ज़मीनदार होगा, न पट्टेदार, न भूमिहीन किसान होगा. इस तरह के सामूहिक खेती के लिए वित्त, सिंचाई-जल, जोत-पशु, खेती के औज़ार, खाद-बीज आदि का प्रबंध करना सरकार की ज़िम्मेदारी होगी।

सरकार मूल और आवश्यक उद्योगों, बीमा व्यवसाय तथा कृषि भूमि का डिबेंचर के रूप में उचित मुआवज़ा देकर अधिग्रहण करेगी.
किसानों से जुड़ी जितनी भी समस्याओं से आज हम जूझ रहे हैं उन सभी का समाधान डॉ. अम्बेडकर ने सौ साल पहले ही अपनी किताब स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ किताब के ज़रिए हमें दे चुके हैं लेकिन कमोबेश इस किताब पर लोग ज्यादा ध्यान ही नहीं देते. क्यूंकि देश का शासक देश को टुकड़ों में बंटा हुआ ही देखना चाहता है और इसीलिए पूंजीवाद के ज़रिए हर समस्या का समाधान अपने ही तौर पर खोजना चाहता है. इस देश के अन्नदाता की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है और उसके समाधान में उसे ही केंद्र में रखे बिना सरकार नया कृषि बिल यह कहते हुए लागू कर देती है कि यह उनके हित में है. सच्चाई ये है कि आज हमारे अन्नदाता बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं और बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे में इस विवादित कृषि बिल का आना एक अलग बहस पैदा कर चुका है और हो भी क्यों न, मौजूदा सरकार पूंजीपतियों को ध्यान में रखते हुए सभी फैसले ले रही है और लगातार संस्थाओं का निजीकरण जारी है, न कोई बहस , न कोई चर्चा.

आंबेडकर ने इस किताब में यह सुझाव भी पेश किया था कि यदि सरकार अपनी योजनाओं में उनके द्वारा सुझाए विकल्पों को शामिल कर ले, तो किसानों की दशा में काफी सुधार आ सकता है. सरकार गाहे-बगाहे किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की रट लगाती रहती है मगर बाबा साहेब के मुताबिक यह बेहद छोटा सा घटक है, दूसरे पहलू कहीं ज्यादा जरूरी हैं. वह कहते थे अगर हम वाकई किसानों के मुद्दों के प्रति गंभीर हों, तो स्मॉल होल्डिंग यानी छोटा रकबा भी मुनाफे में तब्दील किया जा सकता है. उनके मुताबिक सिर्फ़ कर्ज ही एक उपाए नहीं था, बल्कि कृषि और किसानी को आधुनिक बनाने और किसानों को इसके लिए प्रशिक्षित करना भी जरुरी उपायों में शामिल हैं. सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उन्होंने समय के साथ-साथ होने वाले तमाम बदलावों को किसानों से साझा करने की वकालत की थी लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा ध्यान उनके द्वारा सुझाए उपायों को अमल करने में जाता ही नहीं.

उनका मानना था कि किसान की क्षमता बढ़ाना ही हमारा अंतिम उद्देश्य होना चाहिए क्यूंकि वह समझते थे कि किसान कभी भी पूंजीपति नहीं हो सकता. वह हर फसल के बाद दूसरी फसल उपजाने का इंतज़ार करता है और फिर तीसरी, यह सिलसिला वह जारी रखता है क्यूंकि उसके पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती, इसलिए एक फसल को बेचकर दूसरी फसल को उपजाने की तैयारी करता है. मान लें कि एक साल उसको बढ़िया लाभ मिला तो कभी सूखा पड़ने की स्थिति में किसान की दशा फिर से वही हो जाएगी. इसलिए उन्होंने सुझाया कि सरकार अपनी उचित भूमिका निभाते हुए किसानों के लिए ऐसी योजना बनाए कि वह उचित दाम पर अपनी फसल बेच सके. साथ ही बाबा साहेब ने किसानों को बिचौलिए से बचाने की बात भी कही थी मगर देश का दुर्भाग्य यह है कि सौ साल पहले भविष्य का खाका खींच दिए जाने के बाद भी हम इस दिशा में सक्रिय नहीं हो सके हैं और किसानों, दलितों, पिछड़ों का शोषण आज भी लगातार जारी है।

( लेख में व्यक्त विचार सविता आनंद के निजी अध्ययन पर आधारित है)

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