जयंत जिज्ञासू 

(आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जन्मदिन के मौके पर उनसे जुड़े तमाम प्रसंगों को सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है। इसी कड़ी में पेश है जयंत जिज्ञासु का ये देख- जिसमें लालू प्रसाद यादव की धर्मनिरपेक्षता के पहलू को उजागर किया गया है)

1989 के भागलपुर दंगे में विषाक्त हो चुके बिहार में लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने सत्ता संभालने के बाद 15 साल तक कोई बड़ा दंगा नहीं होने दिया। आडवाणी ने माहौल बिगाड़ने की कोशिश की तो उनको समस्तीपुर में सैंत के उड़नखटोला में बिठा के मसानजोड़ में अनलोड कर दिया। सीतामढ़ी में दंगा भड़काने की कोशिश हुई तो सुब्ह-सुब्ह भिनसरबा में डीएम के जगने के पहले खुद हेलिकॉप्टर लेकर पहुँच गए, और दंगाई भाग खड़े हुए।

जिस बिहार में आडवाणी की गिरफ़्तारी पर चिड़िया ने चू़ं तक नहीं किया था, बाबरी विध्वंस के बाद कहीं हिंसा नहीं भड़कने दी गई, उस बिहार को नीतीश-मोदी ने कहां से कहां पहुंचा दिया। लालू प्रसाद ने 2014 के आम चुनाव के वक़्त कहा था, “यह चुनाव तय करने जा रहा है कि देश रहेगा कि टूटेगा”। उस वक़्त किसी ने सोचा नहीं था कि आने वाला निजाम इस कदर ख़तरनाक साबित होगा कि मजहब के नाम पर उन्माद फैलाएगा, इलेक्शन कमीशन की ऐसी-तैसी करके रख देगा, बैंक के बैंक लुटवा देगा, लुटेरों को विदेश भगा देगा और जनता बेचारी त्राहिमाम करेगी।

इसी साल दिल्ली को जिस तरह आग के हवाले कर दिया गया, वह क्या शासन-प्रशासन की ढिलाई के बगैर मुमकिन था? विद्रोही के शब्दों में, “यह आग लगी नहीं, लगाई गई है”। देश की हालत ठीक नहीं, और शासन में बैठे लोगों की चुप्पी उन्हें बेपर्दा व बरहना कर रही।

लालू प्रसाद ने 90 की रैली में पटना के गांधी मैदान से क़ौमी एकता के लिए जो हुंकार भरी थी और कड़े शब्दों में संदेश दिया था, इतिहास उसे कभी भुला नहीं सकता। उनके शब्द थे:

‘’मैं इस मंच के माध्यम से पुनः श्री आडवाणी जी से अपील करना चाहता हूं कि अपनी यात्रा को स्थगित कर दें। स्थगित कर के वो दिल्ली वापस चले जाएं, देशहित में। अगर इंसान ही नहीं रहेगा, इंसान नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा? या कौन बजाएगा जब इंसानियत पर ख़तरा हो? इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत कौन देने जाएगा? चौबीस घंटा मैं निगाह रखा हूं, हमने अपने शासन के तरफ़ से, अपने तरफ़ से पूरा उनकी सुरक्षा का भी व्यवस्था किया। लेकिन, दूसरे तरफ़ हमारे सामने सवाल है… अगर एक नेता और एक प्रधानमंत्री का जितना जान का क़ीमत है, उतना आम इंसान का जान का भी क़ीमत है! हम अपने राज में मतलब दंगा-फ़साद को फैलने नहीं देंगे। जहां फैलाने का नाम लिया और जहां बावेला खड़ा करने का नाम लिया, तब फिर हमारे साथ चाहे राज रहे या राज चला जाए, हम इस पर कोई समझौता करने वाले नहीं हैं!”

एक बार फ़ैज़ भाई ने मुझसे कहा था, “भीड़ पागल हो चुकी हो, और हम ख़ून से लथपथ। उस वक़्त इस देश में एक ही नेता का ख़याल आता है जो उन दंगाइयों के बीच जाकर सड़क पर हमारे साथ लड़ेगा, और अपने दामन में समेट कर हमें बचा लेगा; उस नेता का नाम है – लालू यादव। यह आश्वस्ति, भरोसा और तस्कीन देकर इस मुल्क की मिल्लत और भाईचारे की परंपरा को बचाने वाले लालू को छोड़ कर मेरे अंदेशे को कोई और लीडर नहीं मिटा सकता, बचा ही नहीं है दूसरा कोई”। यह कोई मामूली सियासी पूंजी नहीं है, लालू जी की ज़िंदगी भर की कमाई है।

जब बिहार में दंगाई लोग हावी होने लगे और लोगों को भड़काने में जुटे दंगारोपी अश्विनी चौबे के बेटे को गिरफ्तार करने में नीतीश कुमार के हाथ-पाँव फूलने लगे तो तेजस्वी यादव ने सरकार को ललकारते हुए कहा था, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार सिपाही के साथ केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के दंगा आरोपी फ़रार बेटे को पकड़ने की मुझे प्रशासनिक अनुमति दें। एक घंटे में घसीटकर नीतीश कुमार के नकारा प्रशासन को सौंप दूँगा। मेरा दावा है। लटर-पटर से शासन नहीं चलता। दंगा रोकने के लिए कलेजा होना चाहिए”।

गिरिराज सिंह ने ज़हर उगला, “अब सब्र टूट रहा है। मुझे भय है कि हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा?’’ उस पर तेजस्वी यादव ने फौरन फटकार लगाई, “काहे बड़बड़ा रहे हैं, किसी का सब्र नहीं टूटा है। ठेकेदार मत बनिए, हमसे बड़े हिंदू आप नहीं हैं। ये मगरमच्छी रोना रोने से फुर्सत मिले तो युवाओं की नौकरी, विकास और जनता की सेवा की बात करिए”।

15 मई 1993 को पटना के भारतीय नृत्यकला मंदिर में इंटेलेक्चुअल्स को संबोधित करते हुए बिहार के साबिक़ वज़ीरे-आला अब्दुल गफ़ूर ने कहा था, “दुनिया के मुसलमान इस बात को मानते हैं कि अल्पसंख्यकों को पूर्ण सम्मान देकर लालू जी ने पूरे विश्व में बिहार के सर को ऊंचा किया है”।

ज़ी नेटवर्क पर लालू प्रसाद की ज़ाती और सियासी ज़िंदगी पर केंद्रित फ़ारूख़ शेख़ के एक पुराने शो “जीना इसी का नाम है” में चर्चित फ़िल्म निर्देशक महेश भट्ट ने कहा था, “लालू जी के बारे में सिर्फ़ मेरी राय नहीं है, 92-93 में फ़ारूख़ साहब जो मुंबई में हुआ था, उससे आप भी वाकिफ़ हैं, मैं भी वाकिफ़ हूँ, जो हमने नज़ारा देखा था, ख़ून की नदियाँ बही थीं, ऐसै मौक़े पर ये वो शख़्स थे जिसने बिहार में एक दंगा नहीं होने दिया। मैं उस वक़्त से I’m the greatest admirer of this man. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान को अगर किसी व्यक्ति की ज़रूरत है, वो है लालू प्रसाद यादव, क्योंकि सेक्टोरियन वायलेंस को, ये फंडामेंटलिस्ट को रोकने वाला केवल यही व्यक्ति है। ये रुकने वाले हैं नहीं, इनकी बोली ये बोल सकते हैं, और कोई बोल ही नहीं सकता। अगर हिन्दुस्तान को बचाना है, तो इनके हाथ में रेंज दे दीजिए। ये मेरा अनहेज़िटेंट, अनसेंसर्ड, अनएपोलोजेटिक स्टैंड है”।

मैं बारहा कहता हूँ कि देश जब आज़ाद हुआ था, तो गाँधी आज़ादी के जश्न से अलग दिल्ली से दूर बंगाल के नोआखली में दंगा शांत करा रहे थे, हिंदू-मुस्लिम एकता क़ायम करने में लगे थे। वैसे ही लालू प्रसाद 1-अणे मार्ग में मुख्यमंत्री आवास के ऐशो-आराम से दूर दंगा की आशंका या ख़बर सुनते ही चौकन्ने हो जाते थे, और पहुँच जाते थे लोगों की हिफ़ाज़त करने। जब सीतामढ़ी में दंगा भड़का, तो लालू जी सीएम हाउस में आराम नहीं फरमा रहे थे, बल्कि ख़ुद अह्ले-सुब्ह उठ कर बलवाइयों के बीच पहुंच कर उन्हें शांति, सद्भाव और भाईचारा की सीख दे रहे थे।

आज भाईचाराचोरों की जमात लालू प्रसाद को चाराचोर कह रही है। मीडिया से लेके अकेडमिया, ब्युरोक्रसी से लेके जुडिशरी तक में बैठे मनुवादी लोग नित नया-नया नैरेटिव ढूंढ के लाते रहते हैं और शोषित समाज के पहरुआ को डेमनाइज़ करते रहते हैं। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि आडवाणी, मोदी वगैरह आते-जाते रहते हैं, धर्मनिररपेक्षता के लिए क़ुर्बान हो जाने वाले गांधी रहेंगे, उसूल के आगे मिट जाने वाले लालू ज़िंदा रहेंगे।

(जयंत जिज्ञासु जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के छात्र हैं।)

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