अथ श्री यादव/जाटव कथा
यादव, यादववादी हो गए/ जाटव, जाटववादी हो गए!
सही पकड़ा आपने….वाकई दोनों जातियां बहुत ‘बदमाश’ हैं!यह भी कहा गया कि पिछड़ों के सारे हक़ यादव ‘खा’ गए और दलितों के सारे हक़ ‘जाटव’ खा गए. यही कहानी बिहार में पासवान समुदाय के लिए भी गढ़ी जाती है!
‘खा’ गए विशेषण ही बेहद दिलचस्प है. ऐसा लगता है ये हक़ और अधिकार ‘बर्गर’ की तरह है, उठाये और गप्प-गप्प खा लिए…
थोड़ा विस्तार से समझाता हूँ:
ऐसा प्रतीत होता है, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज या अन्य संस्थानों में जब यादव/जाटव जाते हैं तो उनके रिश्तेदार वहां बैठे रहते हैं और सर्टिफिकेट देखते ही कहते हैं, “आओ भांजे तुम यादव हो/तुम जाटव हो….आओ आओ एडमिशन ले लो और इस तरह 27,15,7.5 अर्थात् 49.5% सीट वे ‘खा’ जाते हैं.
अब इंटरव्यू में देखिए….जब गैर-यादव/जाटव इंटरव्यू के लिए जाते हैं, तब ऐसा लगता है उन्हें डांट कर भगा दिया जाता है और जब यादव/जाटव जाते हैं तब सीन देखिए:
इंटरव्यू बोर्ड के टेबल पर तीन साइज़ के बर्गर रखे रहते हैं, सबसे बड़े वाले बर्गर पर OBC/27%, उससे छोटे वाले बर्गर पर SC/15% लिखा रहता है – इंटरव्यू लेने वाला बड़े प्यार से कहता है, आओ बेटा! खा लो…खा लो! दोनों बड़े मज़े से 42% ‘खा’ लेते हैं और खाते-खाते कनखियों से ST/7.5% पर भी नज़र गड़ाए रहते हैं और अपना ख़त्म होने के बाद दोनों 7.5% भी ‘खा’ जाते हैं, जिसमें बड़ा हिस्सा यादव खाता है और छोटा हिस्सा जाटव ‘खा’ लेता है.
इस तरह लगता है भारत के सभी दलित, पिछड़े, और आदिवासियों के हक़ अर्थात् 49.5% आरक्षण को यादवों/जाटवों ने अकेले ‘खा’ लिया है और सभी संस्थानों में 49.5% आरक्षण पूरा हो गया है. है कि नहीं? यही कहना चाहते हैं न?
बहरहाल, कभी आपने सोचा कि इस पटकथा के लेखक कौन हैं? क्या किसी ‘सवर्ण’ को कभी यह कहते सुना कि हमारा हिस्सा अमुक ‘सवर्ण’ जाति ने ‘खा’ लिया है?
इस पटकथा के लेखक कौन हैं, उम्मीद है आप जानते होंगे. उन्होंने तरीके से अपनी ‘लीला’ और ‘जाल’ में फंसाया है और आप फंसे भी हैं!
‘खा’ लेने की पटकथा से इतर पूछा जाना चाहिए कि 49.5% आरक्षण पूरा हुआ या नहीं? यह तो पूछेंगे नहीं, यदि पूछ दिए तो ‘साहब’ नाराज़ हो जायेंगे!
उत्तर भारत के सन्दर्भ में अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ पिछड़ी जातियों में अमूमन सबसे ज्यादा डॉ., इंजीनियर, ऑफिसर कुर्मी जाति से हैं (यदि गलत हूँ तो सुधार सकते हैं). क्या यह कहा जा सकता है कि उन्होंने किसी का हक़ ‘खा’ लिया है?
मेरी समझ में नहीं क्योंकि मुझे लगता है पिछड़ी जातियों में पढ़ने-लिखने में कुर्मी जाति ज्यादा ध्यान देता है. इसलिए बौद्धिक रूप से अन्य पिछड़ी जातियों की अपेक्षा ज्यादा आगे है. सरकारी अवसर सीमित हैं – इसलिए जो पढ़ेगा, वही बढ़ेगा! इस लिहाज से वे नौकरी पाने में आगे हैं! यही तर्क सभी समुदायों पर लागू है.
सनद रहे! नामांकन से लेकर इंटरव्यू बोर्ड में जो लोग बैठे रहते हैं, वह किसी दलित/पिछड़े और आदिवासी को फेवर करने के लिए नहीं बैठते और न ईमानदार होते हैं. एक नम्बर के ‘नंबरकटवे’ होते हैं, अपने लौंडो से गोवा की स्पेलिंग पूछते हैं और आपसे चेकोस्लोवाकिया का.
गोवा का स्पेलिंग गलत बोलकर भी वह ज्यादा नंबर पता है और आप चेकोस्लोवाकिया का सही बोलकर भी कम. इंटरव्यू बोर्ड में दिए गए नंबर के आंकड़ों का मिलान कर सकते हैं.
यदि इमानदार होते तो बैकलॉग और शार्टफाल नहीं रहता और 49.5% प्रतिनिधित्व पूरा हो गया होता! साथ ही कुछ लोग ओपन केटेगरी में भी क्वालीफाई कर गए होते!
अब आइये राजनीति पर!
सही है कि यादवों और जाटवों ने अन्य किसी पिछड़ी या दलित जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया- यह उनकी रणनीतिक हार है. वैसे बिहार में पासवान जी अपने घर के अलावा किसी अन्य पासवान को भी जगह नहीं देते हैं.
लेकिन यादवों/जाटवों ने यदि प्रतिनिधित्व नहीं दिया तो जगदेव बाबू, कर्पूरी जी, राम स्वरुप वर्मा जी, कयूम अंसारी साहब बनने से आपको किसने रोका था?
वैचारिक स्तर पर आन्दोलन करते, अति-पिछड़ो, गैर-जाटव, पसमांदा को इकट्ठा करते! सपा-बसपा-राजद के सामने वैचारिक आधार पर राजनीतिक विकल्प पेश करते. हमारे जैसे लोग पलकें बिछाकर आपका स्वागत करते, दरी बिछाते, दौड़-दौड़ पानी पिलाते, पैसों का भी इन्तेजाम करते!
क्यों? राजनीतिक विकल्प बनाने, आन्दोलन करने, जेल जाने, लाठी खाने से डर लगता है? या व्यक्तिगत ‘मुक्ति’ के लिए छटपटाहट है. हड़बड़ी में कहाँ चले गए? खजूर से उतरे (सपा-बसपा-राजद आदि) और ‘साहब’ ने सीधे ताड़ पर चढ़ा दिया और ताड़ पर चढ़ कर क्या लगा आपको हेलीकाप्टर पर चढ़ गए?
खजूर से गिरने पर तो हल्का-फुल्का चोट ही लगता है, मामूली खरोचें ही आती हैं. लेकिन जो ‘साहब’ ताड़ पर ले गए हैं न, समय का इंतज़ार कीजिए बुलेट की रफ़्तार से वही आपको नीचे फेकेंगे. बुलेट की रफ़्तार से नीचे आयेंगे और राकेट की रफ़्तार से ऊपर! अंतिम में बचे हुए समोसे और लड्डू के अलावा कुछ नहीं मिलेगा.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते-बनते, उप-मुख्यमंत्री बनाये साहब को स्टूल कर बैठा फोटो आपको याद ही होगा. जब सांवैधानिक प्रावधान ख़त्म होंगे तब किसी जाति-विशेष के लिए बल्कि पूरी जमात के लिए ….और उसमें आप भी होंगे! कहते हैं न जब पूरे शहर पर बम गिरता है तब आपका घर कितना भी मज़बूत क्यों न हो, गिरेगा वह भी!
सनद रहे! सरकार का कोई भी दलित/पिछड़ा/आदिवासी कबीना मंत्री दिल्ली विश्वविद्यालय में बगैर अपने आकाओं की सहमति के एक असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति कराकर दिखा दे, सिलेक्शन कमिटी को मैनीपुलेट कर के दिखा दे.
एक कैबिनेट मंत्री दिल्ली विश्वविद्यालय में एक नियुक्ति तक नहीं करा सकता. यह मेरी चुनौती भी है. और आप समझ रहे हैं कोई दलित/पिछड़ा जाति विशेष आपके सारे हक़ को ‘खा’ गया! – बर्गर की तरह!
इस लीला को जितनी जल्दी समझ जायेंगे, उतनी जल्दी जाल से बाहर आयेंगे! जमात की ओर बढ़िए और वैचारिक आधार पर विकल्प पेश कीजिए….आपका स्वागत है! बिल्ली को दही की रखवाली मत दीजिए, नहीं तो अंत में पछतायेंगे!
(रतन लाल दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर हैं)