नोटबंदी को लागू करने को लेकर नया विवाद सामने आया है। एक आरटीआई के अनुसार नोटबंदी लागू करने से पहले आरबीआई और मोदी सरकार की बैठक हुई थी। RBI के इस सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की 561वीं बैठक में तब के गवर्नर उर्जित पटेल, वर्तमान गवर्नर शक्तिकांत दास भी मौजूद थे। इन सभी के मना करने के बावजूद सरकार ने नोटबंदी लागू की अब इसपर सवाल उठने लगे है।

दरअसल नोटबंदी(Demonetization) लागू करने से पहले मोदी सरकार की तरफ से कहा गया था कि 500 और 1000 के पुराने नोट प्रचलन से बाहर करने पर कालेधन पर नकेल कसी जाएगी। जबकि RBI के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का मानना था कि कालाधन ज़्यादातर कैश में नहीं होता है।

साथ ही नकली मुद्रा पकड़ में आएगी और ई-पेमेंट्स को बढ़ावा मिलेगा। पर जानकारों और आंकड़ों की मानें तो कालेधन पर लगाम लगाने में सरकार का यह निर्णय नाकाफी रहा। नहीं होता है। लोग उसे सोने और रियल एस्टेट के रूप में रखते हैं। लिहाजा नोटबंदी से फर्जी नोटों के इस्तेमाल में कोई असर नहीं होने वाला।

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सरकार ने इस बात का तर्क देते हुए कहा था कि साल 2011-12 से 2015-16 में अर्थव्यवस्था का 30 फीसदी फैलाव हुआ, जबकि 500 के नोटों में 76 प्रतिशत और 1000 के नोटों में 109 फीसदी बढ़ोतरी हुई।

वहीं आरबीआई ने कहा कि अर्थव्यवस्था की जिस विकास दर का जिक्र किया गया है, वह रियल रेट (असली दर) है, जबकि मुद्रा में हई प्रगति नाममात्र की है। ऐसे में सरकार का तर्क नोटबंदी की सिफारिश का समर्थन न कर सका।

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मगर मोदी सरकार ने आरबीआई की एक दलील नहीं सुनी और नोटबंदी लागू कर एक अनोखा इतिहास रचा। क्योंकि नोटबंदी के बाद विपक्ष के अनुसार न तो कालेधन पर रोक लगी और न ही आतंकवाद और नक्सलवाद पर सरकार का ये फैसला नकेल कस पाया। खुद आरबीआई ने इस बात खुलासा किया था कि ज्यादतर नोटबंदी के 500 और 1000 की नोट 99.5 वापस आ गई, ऐसे में सवाल उठता है आखिर नोटबंदी लागू करने के पीछे सरकार का मकसद क्या था?

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