जयंत जिज्ञासु

चंद्रशेखर का अपना पैमाना है, वो मेयारे-ज़माना से कभी घबराए नहीं। कई बिंदुओं पर उनसे बेहद गहरी मतभिन्नता के बावजूद उनकी बेबाकी को सलाम!

एक बार चंद्रशेखर ने सदन में कहा था, जो आज सत्ता पक्ष के लोगों को भूलना नहीं चाहिए, “एक बात हम याद रखें कि हम इतिहास के आख़िरी आदमी नहीं हैं। हम असफल हो जायेंगे, यह देश असफल नहीं हो सकता। देश ज़िंदा रहेगा, इस देश को दुनिया की कोई ताक़त तबाह नहीं कर सकती। ये असीम शक्ति जनता की, हमारी शक्ति है, और उस शक्ति को हम जगा सकें, तो ये सदन अपने कर्त्तव्य का पालन करेगा।”

जब अधिकांश लोग सेना बुला कर लालू प्रसाद को गिरफ़्तार करने पर ‘भ्रष्टाचार’ की ढाल बनाकर चुप्पी ओढ़े हुए थे और नीतीश जी जैसे लोग उल्टे इस क़दम के पक्ष में सदन में हंगामा कर रहे थे, तो चंद्रशेखर ने लालू प्रसाद मामले में सीबीआइ द्वारा अपने अधिकार का अतिक्रमण करने, न्यायपालिका को अपने हाथ में लेने व व्यवस्थापिका को अंडरएस्टिमेट करने के अक्षम्य अपराध पर लोकसभा में बहस करते हुए जो कहा था, उसे आज याद किये जाने की ज़रूरत है –

“लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई ? ऐसा वातावरण बनाया गया मानो राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो। लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे। मुझ पर आरोप लगे कि लालू को मैं संरक्षण दे रहा हूँ।

मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरी दिलचस्पी किसी व्यक्ति विशेष में नहीं है, ऐसा करके मैं इस संसदीय संस्कृति की मर्यादा का संरक्षण कर रहा हूँ। जब तक कोई अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता, उसे अपराधी कहकर मैं उसे अपमानित और ख़ुद को कलंकित नहीं कर सकता। यह संसदीय परंपरा के विपरीत है, मानव-मर्यादा के अनुकूल नहीं है।

किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है। लालू को मिटा सकते हो, मुलायम सिंह को गिरा सकते हो, किसी को हटा सकते हो जनता की नज़र से, लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद या दूसरा मुलायम बना दें।

भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है। एक शब्द है हिंदी में जिसे सत्यनिष्ठा कहा जाता है, अगर सत्यनिष्ठा (इंटेग्रिटी) नहीं है, तो सरकार नहीं चलायी जा सकती। और, सत्यनिष्ठा का पहला प्रमाण है कि जो जिस पद पर है, उस पद की ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए, उत्तरदायित्व को निभाने के लिए आत्मनियंत्रण रखे, कम-से-कम अपनी वाणी पर संयम रखें। ये नहीं हुआ अध्यक्ष महोदय।

सीबीआइ अपनी सीमा से बाहर गयी है, ये भी बात सही है कि उस समय सेना के लोगों ने, अधिकारियों ने उसकी माँग को मानना अस्वीकार कर दिया था। ये भी जो कहा गया है कि पटना हाइ कोर्ट ने उसको निर्देश दिया था कि सेना बुलायी जाये; वो बुला सकते हैं, इसको भी सेना के लोगों ने अस्वीकार किया था।

ऐसी परिस्थिति में ये स्पष्ट था कि सीबीआइ के एक व्यक्ति, उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था। मैं नहीं जानता कि कलकत्ता हाइ कोर्ट का क्या निर्णय है। उस बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता। लेकिन ये प्रश्न ज़्यादा मौलिक है जिसका ज़िक्र अभी सोमनाथ चटर्जी ने किया। अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढाँचा ही टूट जायेगा।

सेना बुलाने के बहुत-से तरीके हैं। वहाँ पर अगर मान लीजिए मुख्यमंत्री नहीं बुला रहे थे, वहाँ पर राज्यपाल जी हैं, यहाँ पर रक्षा मंत्री जी हैं, होम मिनिस्ट्री थी, बहुत-से साधन थे, जिनके ज़रिये उस काम को किया जा सकता था। लेकिन किसी पुलिस अधिकारी का सीधे सेना के पास पहुँचना एक अक्षम्य अपराध है।

मैं नहीं जानता किस आधार पर कलकत्ता हाइ कोर्ट ने कहा है कि उनको इस बात के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए। मैं अध्यक्ष महोदय आपसे निवेदन करूँगा और आपके ज़रिये इस सरकार से निवेदन करूँगा कि कुछ लोगों के प्रति हमारी जो भी भावना हो, उस भावना को देखते हुए हम संविधान पर कुठाराघात न होने दें, और सभी अधिकारियों को व सभी लोगों को, चाहे वो राजनीतिक नेता हों, चाहे वो अधिकारी हों; उन्हें संविधान के अंदर काम करने के लिए बाध्य करें।

और, अगर कोई विकृति आयी है, तो उसके लिए उच्चतम न्यायालय का निर्णय लेना आवश्यक है, और मुझे विश्वास है कि हमारे मंत्री, हमारे मित्र श्री खुराना साहेब इस संबंध में वो ज़रा छोटी बातों से ऊपर उठकर के एक मौलिक सवाल के ऊपर बात करेंगे।”

आज गिरते मूल्यों के बीच बहुत कम लोग नज़र आते हैं जिन्हें संसदीय मर्यादा का अनुपालन करने की फ़िक्र हो। चंद्रशेखर से लाख असहमति हो, पर वो संसद में डिग्निटी के साथ बहस करना और उसका हिस्सा होना जानते थे।

इतनी नम्रता और प्रखरता से वो बात रखते थे कि अटल जी भी बुरा नहीं मानते थे, “अपने अंदर में विभेद हो और सारे देश को एकता का संदेश दिया जाय, यह बात कुछ सही नहीं दिखाई पड़ती। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि पीएम ने अपने आचरण से हमारे जैसे लोगों को निराश किया है…

अख़बारों के पन्ने से से इतिहास नहीं लिखा जाता, लोगों के प्रशस्ति गान से इतिहास नहीं बनता। …बेअक़्ल लोगों की सलाह लेने से कभी -कभी हम ख़तरे में पड़ जाते हैं, प्रधानमंत्री जी। प्रलाप सामर्थ्य का द्योतक नहीं है ।…शायद इसीलिए मैं आपके विश्वास तोड़ने की इस कला का विरोध करता हूँ ।”

ऐसा इसलिए भी संभव हो पाता था कि लोकसभा के अध्यक्ष भी उसी निष्पक्षता से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते थे। एक वाक़या याद आता है कि चंद्रशेखर सदन में पूरे प्रवाह में बोल रहे हैं, इतने में एक सदस्य ने अनावश्यक टोकाटोकी की।

बस क्या था, चंद्रशेखर अपने युवा-तुर्क वाले अंदाज़ में आ गये, मानीय सदस्य को एक नज़र देखा और डपटते हुए धीरे से ले ली चुटकी :

If you’re Speaker, then I shall address to you. Unfortunately, you aren’t, and I think country will not be that unfortunate that you’ll be a coming speaker.

इतना कहकर चंद्रशेखर ने ठहाका लगा दिया, बस पूरे सदन में कहकहे… ये चंद्रशेखर की वाग्पटुता और स्वीकार्यता थी।

आज जैसा माहौल बना दिया गया है, उसमें कोई सोच भी सकता है, जो बात सहजता से चंद्रशेखर कह जाते थे – “अध्यक्ष जी, युद्ध बुरा खेल है, मैं प्रधानमंत्री जी से कहूंगा कि वो हमसे लड़ लें, मगर पाकिस्तान से लड़ने की जिद न करें।

हम शांतिप्रिय लोग हैं, मगर हममें से जो बयानवीर लोग सीमा पर जाना चाहते हैं, उन्हें वहां भेज दें, मुझे कोई एतराज़ नहीं है।

Nations are not run by ballot and bullet, but by the will power of the people. और, याद रखिए कि चापलूसों और समर्थकों में बहुत थोड़ा अंतर होता है। There’s very thin line between supporters and flatterers.”

कुल मिलाकर यह समय मसखरों के लगातार छाने और मंडराने की आहट के साथ हमारे सामने है, किसी रोज़ पूरा तंत्र ही कहीं मसखरा तंत्र में न तब्दील हो जाए, संकट इसी बात का है।

गोपाल दास नीरज ने ठीक ही कहा:

न तो पीने का सलीक़ा न पिलाने का शऊर
ऐसे ही लोग चले आए हैं मैख़ाने में।

(जयंत जिज्ञासु जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।ये लेख उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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