ऋषिकेश शर्मा

बिहार में चुनावी सिरगर्मियाँ अब धीरे-धीरे बढ़ने लगी है। भाजपा ने जहाँ 72 हज़ार LED स्क्रीन वाली 144 करोड़ की रैली की, वहीं नीतीश कुमार ने भी अपने कार्यकर्ताओं से कह दिया है कि वो चुनाव को लेकर तैयार रहें। जल्द ही निर्वाचन आयुक्त इस सिलसिले में बिहार का दौरा भी करेंगे। लेकिन चुनाव को लेकर मौजूदा सरकार की जल्दबाजी ने इन्हें जनता के कटघरे में खड़ा कर दिया है।

प्रवासी मजदूरों को घर ला पाने में इनकी नाकामी जगजाहिर है लेकिन अब उससे भी बड़ा संकट है अब इन्हें प्रदेश में रोजगार देना। लेकिन राज्य सरकार इसके प्रति अभी तक बिल्कुल भी गंभीर नहीं दिखी है। अब सरकार में बैठे लोगों की चिंता दोबारा बस इनसे वोट पाने की रह गई है।

बिहार में बेरोजगारी अभी अपने चरम पर है। बिहार में बेरोजगारी 31.2% तक बढ़कर 46.6% तक चली गई है। अप्रैल 2020 तक के इस आंकड़े के बाद बिहार बेरोजगारी में तमिलनाडु और झारखंड के बाद देश के राज्यों में तीसरे स्थान पर है।

बिहार की बेरोजगारी दर अभी देश के बेरोजगारी दर 23.5% से भी दुगुनी है। ऐसे में केंद्र या राज्य सरकार की तरफ़ से रोजगार को लेकर कोई ठोस योजना नहीं दिख रही है। बजाये इसके सत्ताधारी पार्टियां अब अपनी सारी ऊर्जा चुनाव में लगाने को आतुर है।

ऐसे में सवाल ये उठता है कि रोजगार का मुद्दा, जो बिहार में कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन सका, क्या इस स्तर तक बढ़ने पर सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है? अगर ऐसा होता है तो मौजूदा सरकार को इस चुनाव में अपने ख़िलाफ़ कोई भी अप्रत्याशित नतीजे देखने को मिल सकते हैं।

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