भारत में एक तरफ महंगाई की मार है, तो दूसरी तरफ बेरोज़गारी से जनता परेशान है। तेल-टमाटर के बढ़ते दामों के बीच लाखों-लाख लोगों की नौकरियां जा रही हैं। आलम ये है कि देश के प्रधानमंत्री के जन्मदिन को पिछले कुछ सालों से  ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। सेण्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ,यानी CMIE ने नए आंकड़ें जारी कर बताया है कि नवंबर महीने में ही 60 लाख से ज़्यादा सैलरीड नौकरियां खत्म हो गईं। मोदीजी आपके ‘न्यू इंडिया’ में विकास की गंगा उलटी बह रही है। मोदीजी, बेरोज़गार है आपका ‘न्यू इंडिया’!

कहने को तो नवंबर महीने में 112 लाख श्रमिकों और छोटे व्यापारियों की नौकरियां बढ़ी हैं, जिसे सत्तापक्ष के लोग एक बड़ी जीत के रूप में दिखा रहे हैं। लेकिन वो जनता से एक ज़रूरी बात छुपा रहे हैं। इसी महीने में 68 लाख सैलरीड लोगों की नौकरियां छिन गई हैं। इन आंकड़ों का खेल ही कुछ ऐसा है कि सरकार इनको भी अपने पक्ष में गिनवा लेती है। ध्यान से देखा जाए तो साफ़ पता चलता है कि रोज़गार की क्वालिटी में गिरावट आई है। ज़्यादा लोगों को दिहाड़ी मज़दूर बनना पड़ रहा है, जबकि अम्बानी-अडानी की दिन दूनी रात चौगुना तरक्की हो रही है। पिछले साल के नवंबर महीने  मुकाबले इस साल 9.7 प्रतिशत कम सैलरीड नौकरियां हैं।

रोज़गार की लिस्ट में दिहाड़ी मज़दूरों की संख्या बढ़ने से जो लोग दहाड़ रहे हैं, उन्हें इस वीडियो को पूरा सुन्ना चाहिए। ‘न्यू इंडिया’ में बढ़ती बेरोज़गारी का असर देखने के लिए श्रमिकों की हालत के बारे में जानना चाहिए। CMIE की रिपोर्ट में बताया गया है कि श्रमिकों की भागीदारी दर 40 प्रतिशत है, जबकि यही कोरोना महामारी से पहले 43 प्रतिशत थी। अंतराष्ट्रीय श्रमिक संगठन ने वर्ष 2020 में श्रमिकों की भागीदारी दर का आंकड़ा 58.6 प्रतिशत पर रखा है। इसका मतलब दुनिया के मुकाबले भारत में श्रमिकों की रोज़गार में कम भागीदारी है।

मोदीजी का न्यू इंडिया भुकमरी में आगे है, लेकिन रोज़गार में पीछे है।  मोदीजी का न्यू इंडिया महंगाई में आगे है, लेकिन व्यापर में पीछे है।  मोदीजी का न्यू इंडिया धर्म की राजनीति में आगे है, मगर विकास में पीछे है।

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