प्राइवेट अस्पतालों की लापरवाही और लूट रोजाना कई दर्जनों मौत का कारण बन रही है। कोरोना का ईलाज कर रहे निजी अस्पतालों का शुल्क इन दिनों इंटरनेट पर वायरल है।

इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी विभाग के प्रोफेसर रहे वली अख्तर की मौत हो गई। उन्हें बीते एक सप्ताह से तेज बुखार था जिसको लेकर वो अपना ईलाज कराने के लिए 6 निजी अस्पतालों तक भटके लेकिन उन्हें कहीं भी एडमिट नहीं किया गया। शहर स्थित फोर्टिस अस्पताल के गार्ड ने उन्हें गेट पर से ही लौटा दिया। इसी तरीके से सभी अस्पतालों में उन्हें ये सब झेलना पड़ा और शहर के पाँच अस्पतालों के चक्कर काटने के बाद भी उन्हें भर्ती नहीं मिली।

अंत में जाकर उन्हें एक अस्पताल में भर्ती मिली लेकिन वो कोविड अस्पतालों में नहीं था। उन्हें साँस लेने में दिक्कत और तेज बुखार थी। इसे लेकर उनका टेस्ट भी कराया गया लेकिन रिपोर्ट आने से पहले ही उनकी मौत हो गई।

प्रो वाली को निजी अस्पतालों द्वारा भर्ती न करना साम्प्रदायिक एंगल को भी सामने लाता है। कुछ दिनों पहले कुछ मेडिकल स्टाफ़ और डॉक्टरों के एक व्हाट्सएप ग्रुप की चैट लीक हुई थी। उसमें डॉक्टर्स से लेकर अस्पताल में काम करने वाले लोग ये कह रहे थे कि वो किसी भी मुसलमान का इलाज नहीं करेंगे तो कोई यह कह रहा था कि गेट पर से ही लौटा देंगे। जब हमारे सामने इस तरह की घटना सामने आती है और उससे एक प्रोफेसर की मौत हो जाती है तो फिर से वही सवाल खड़ा हो जाता है। क्या वाली को एडमिट न किये जाने के पीछे कोई ऐसी बात भी थी?

प्रो वली की मौत कोरोना से हुई है या नहीं ये तो रिपोर्ट बताएगा लेकिन जिस तरीके से उन्हें एक सप्ताह तक अस्पताल दर अस्पताल भटकना पड़ा इससे देश और राजधानी की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का पोल खुल गया। जिस तरीके से यहाँ कोरोना केसेज़ बढ़ रहे हैं, जनता के पास बस दो ही विकल्प है। पहला कि अगर हाथ में पैसे हों तो मेदांता और मैक्स जैसे महंगे अस्पतालों में ईलाज कराओ और दूसरा कि घर बैठकर अपना ईलाज खुद करो अर्थात कि आत्मनिर्भर बनो।

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