दिल्ली में वायु प्रदुषण के कारण लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो रही है, लेकिन इसे कोई बड़ा राजनैतिक मुद्दा नहीं बनाया जा रहा। राजधानी की हवा की गुणवत्ता इतनी खराब है कि लोगों को आँखों में भी जलन महसूस हो रही है। दिल्ली के करोल बाग़ इलाक़े का तो एयर क्वालिटी इंडेक्स 633 तक पहुँच गया है। ये ‘ख़राब’ के साथ साथ ‘इमरजेंसी’ की श्रेणी में आता है।

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और केंद्र की सरकारें एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगा रहीं हैं। लेकिन इससे निपटने के लिए कोई भी ठोस क़दम नहीं उठा रहीं हैं। एयर क्वालिटी इतनी ख़राब है कि बच्चों के स्कूल बंद कर दिए गए हैं। तमाम कंपनियां अपने कर्मचारियों को घर से काम करने की सलाह दे रही हैं। लेकिन इन सबसे इस मुसीबत का कोई ढंग का समाधान नहीं निकलता।

सरकारी एजेंसी ‘सफर’ का कहना है कि पंजाब और हरयाणा में जलाए जाने वाली पराली से निकला धुआं दिल्ली के प्रदुषण का 46% हिस्सा हो गया है। लेकिन इस धुएँ से तो सबसे पहले किसानों के ही फेफड़े ख़राब होते हैं, सरकारें उनकी मजबूरी दूर नहीं कर पा रही है। इन दोनों राज्यों की सरकारों पर सवाल खड़े हो रहे हैं कि आखिर वो इस मुश्किल से निपटने कि लिए कोई नीति क्यों नहीं लाते।

दिवाली और दूसरे त्योहारों पर जो लोग अपनी मर्ज़ी से पटाखे जलाकर वायु प्रदूषण बढ़ाते हैं, उनसे भी सवाल किए जा रहे हैं। दिल्ली एनसीआर में इंडस्ट्रीज के कारण हवा मे ज़हर घोला जा रहा है। वजह सबको पता है, लेकिन फिर भी समाधान अभी दूर है। समाधान दूर है क्योंकि इसपर कोई काम नहीं करना चाहता, शायद इससे किसी को वोट नहीं मिलता।

आपको बता दें कि दिल्ली या देश के बाक़ी प्रदूषित शहर नवंबर में अचानक से गैस चेम्बर नहीं बन जाते हैं। ये नतीजा है साल भर की राजनैतिक अनदेखी का। ये नतीजा है राजनैतिक दोगलेपन का।

कोई नेता मनोज तिवारी दिवाली पर पटाखे जलाकर वायु प्रदुषण पर ‘इलेक्शन स्टंट’ करने लगता है तो कोई रोहित सरदाना पटाखे जलाने की तस्वीर भी डालता है, और उन्ही के खिलाफ प्रोग्राम भी करता हैं।

क्योंकि हमारे देश में मनोज तिवारी जैसे राजनेता और रोहित सरदाना जैसे पत्रकार हैं इसलिए वायु प्रदुषण राजनैतिक मुद्दा नहीं बनता. ये बस सीजनल मुद्दा बनता है। राजनेताओं और मीडिया के दोहरेपन के कारण ही लोग उस प्रदूषण के खिलाफ जागरूक नहीं होते जो जिंदगी के लिए काल बन रहा है।

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