तान्या यादव

कोरोना काल भारत के मज़दूरों के लिए सबसे बड़ा ‘काल’ बनकर सामने आया है। एक तरफ़ मज़दूरों के पास खाने को रोटी नहीं है तो दूसरी तरफ़ सरकार उनके हक़ों को छीन रही है। मज़दूरों की बेहतरी के उपाय करने के बजाए उनके शोषण की अनुमति दे दी गई है। दरअसल 8 के बजाए अब 12 घंटे काम करवाने की इजाज़त दे दी गई है।

राजस्थान सरकार ने कहा है कि औद्योगिक ईकाईयां अब मजदूरों से 8 के बजाय 12 घंटे काम करा सकती हैं। सरकार का तर्क है कि इससे ज्यादा भीड़ जमा नहीं होगी। वहीं दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश की सरकार ने राज्य में मज़दूरों से जुड़े कुछ कानून तीन साल के लिए प्रभावी नहीं रहेंगे। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि निवेश बढ़ सके।

सवाल बनता है कि क्या सरकार के पास निवेश बढ़ाने के लिए मज़दूरों का शोषण ही एक उपाय है? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राज्य में श्रमिकों से जुड़े केवल तीन कानून ही लागू रहेंगे। ओडिशा सरकार ने भी अस्थायी रूप से दैनिक आठ घंटे की शिफ्ट को 12 घंटे में बदल दिया है।

आपको बता दें कि फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के मुताबिक, किसी भी वयस्क मज़दूर को किसी फैक्ट्री में प्रति दिन 8 घण्टे से ज़्यादा काम करने की ज़रूरत नहीं है। एक हफ़्ते में केवल 48 घण्टे यानी छः दिन काम करना होगा और एक दिन की छुटी मिलेगी। कोरोना महामारी के चलते अचानक घोषित किए गए लॉकडाउन में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें सभी मज़दूरों को उनके घरों तक तो नहीं पहुंचा पाई, उनको खाना नहीं दे पाई लेकिन मज़दूरों के बुनियादी अधिकार को छीन रही है।

सवाल वही बना हुआ है- क्या अर्थव्यवस्था बचाने के नाम पर श्रमिकों से अमानवीय तरीके से काम कराना अपने आप में अपराध नहीं? क्या 8 घंटे से ज्यादा श्रम करवाकर बाबा साहब द्वारा दिए गए संवैधानिक प्रबंध का खंडन करना ही एक उपाय है ? क्या श्रमिकों के लिए सरकार के पास फंड नहीं?

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