सूफ़ी समीर

लोकसभा में पास होने के बाद राज्यसभा में सवर्ण आरक्षण बिल पर चर्चा हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकतम आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी निर्धारित की है। मौजूदा आरक्षण पद्धति के ज़रिये सवर्णों को या किसी भी समाज को 50 फ़ीसदी से अलग हटकर आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

इसलिए सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार संविधान संशोधन बिल लेकर आई है। अगर बिल राज्यसभा में भी पास हो जाता है तो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इसे क़ानून बनाकर संविधान की 9वीं सूची में डाल दिया जाएगा।

इस तरह सुप्रीम कोर्ट के निर्धारित 50 फ़ीसदी से अलग सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण का रास्ता साफ़ हो जाएगा।

लेकिन क्या इस संशोधित बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी?… इसका जवाब है  हाँ।

ये मुमकिन है-

अगर सवर्ण आरक्षण पर संविधान संशोधन साल 2007 के IR COELHO जजमेंट आने के पहले किया जाता और इसे संविधान की 9वीं सूची में डाल दिया जाता तो सुप्रीम कोर्ट के लिए भी ये मुमकिन नहीं था कि वो संविधान की 9वीं सूची के अंदर आने वाले क़ानूनों की न्यायिक समीक्षा कर पाए।

लेकिन 2007 के सुप्रीम कोर्ट के IR  COELHO जजमेंट के बाद अब सुप्रीम कोर्ट 9वीं सूची के साथ ही ऐसे किसी भी संशोधन की समीक्षा कर सकती है जो उसे संविधान के आधारभूत ढाँचे के उलट लगता हो। यहाँ तक की कोर्ट उसे रद्द भी कर सकती है।

क्या है आईआर कोएल्हो जजमेंट-

आईआर कोएल्हो जजमेंट को समझने के लिए संविधान की 9वीं अनुसूची को समझना पड़ेगा। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को इसका जनक कहा जा सकता है। दरअसल नेहरू के समय लाए जा रहे ज़मीन सुधार क़ानूनों को ज़मींदारों की ओर से अदालतों में लगातार चुनौती मिल रही थी। ज़मीदार इन क़ानूनों को बुनियादी हक़ के ख़िलाफ़ बताकर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रहे थे। जिससे परेशान होकर नेहरू ने 1951 में संविधान संशोधन कर 9वीं अनुसूची को संविधान में जोड़ा। ध्यान देने वाली बात ये है कि ये देश का पहला संविधान संशोधन था।

इसी के साथ इसमें आर्टिकल 31-B को भी जोड़ा गया। इसके तहत संविधान की 9वीं अनुसूची में रखे विधेयक को अदालतें बुनियादी अधिकारों का हनन बताकर रद्द नहीं कर सकती।

नेहरु की सरकार ने ये अनुसूची संविधान में इसलिए जोड़ी ताकी ज़मीन सुधार क़ानूनों को बनाने में कोई दिक़्कत न पेश आए। लेकिन अब इस अनुसूचि का फ़ायदा सरकारें अपना हित साधने के लिए करती हैं ताकी उनकी सरकार में पास किए गए किसी भी विधेयक को 9वीं अनुसूची में डाल दिया जाए। जिससे कोर्ट इसकी समीक्षा न कर सके। इसका जमकर फ़ायदा उठाया गया। अब तक इस अनुसूची में 300 से ज़्यादा विधेयक रखे गए हैं।

साल 2007 में इसको तगड़ा झटका उस वक़्त लगा जब सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की एक बेंच ने IR COELHO v/s TAMILNADU GOVERNMENT मामले में एक फ़ैसला देते हुए कहा कि,अगर संविधान के मूल ढाँचे के ख़िलाफ़ कोई क़ानून पाया जाता है तो कोर्ट संविधान की 9 वीं अनुसूची के तहत आने वाले क़ानूनों को भी रद्द कर सकती है

कोर्ट ने साफ़ शब्दों में कहा था कि ये आदेश 24 अप्रैल 1973 के बाद बने हर क़ानून पर लालू होता है। ग़ौरतलब है कि साल 1973 के अप्रैल 24 को सुप्रीम कोर्ट ने केशवनंनदन भारती v/s केरल सरकार के मुक़दमे में कहा था कि, कोई भी सरकार संविधान के बुनियादी ढाँचे से छेड़खानी नहीं कर सकती

मतलब साफ़ है कि अगर सरकार सवर्ण आरक्षण पर विधेयक संसद के दोनों सदनों से पास कराकर इसे संविधान की 9वीँ अनुसूची में रखने में कामयाब हो जाती है। और इसे कोर्ट में चुनौती दी गई तो कोर्ट इसकी समीक्षा कर सकती है। यानी सवर्ण आरक्षण का भविष्य हमेशा स्थिर रहने वाला नहीं है।

हालांकि कांग्रेस हो या बीजेपी कोई भी दोबारा कोर्ट में इस आरक्षण को चैलेंज करने की जुर्रत नहीं करेगा। वजह यही है कि कोई भी सवर्णों को नाराज़ करने का जोखिम मोल लेना नहीं चाहता।

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