पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर बनी फिल्म आज यानी 11 जनवरी को रिलीज हो चुकी है। विजय गुट्टे के निर्देशन में बनी यह फिल्म रिलीज से पहले विवादों में थी।

रिलीज होने के बाद क्रिटिक इस फिल्म को औसत दर्जे का बता रहे हैं। फिल्म में कई तकनीकि खामियां हैं। फिल्म मनमोहन सिंह के राजनीतिक जीवन पर आधारित है लेकिन एनडीटीवी के पत्रकार उमाशंकर सिंह का मानना है कि ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ नाम देकर संजय बारू ने अपने ऊपर पिक्चर बनवा ली है।

‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ देखने के बाद उमाशंकर सिंह ने कई ट्वीट के माध्यम से फिल्म के बार में बताया है। उन्होंने लिखा है…

‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ नाम देकर संजय बारू ने अपने ऊपर पिक्चर बनवा ली है। पूरी फ़िल्म बारू के इर्द गिर्द घूमती है। मनमोहन सिंह साइड रोल में नज़र आते हैं। मनमोहन पर जितनी सोनिया नहीं उससे अधिक बारू अपनी चलाते नज़र आते हैं।

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फ़िल्म के डिस्क्लेमर के विपरीत इसमें मनमोहन समेत कई नेताओं के असल शॉट्स का इस्तेमाल किया गया है। मक़सद मनोरंजन बताया गया है पर तमाम पात्रों की भाव भंगिमाओं को राजनीतिक दुर्भावना से परिपूर्ण रखा गया है।बारू किन पत्रकारों का ‘इस्तेमाल’ करते थे इसका भी ख़ुलासा नहीं किया गया है।

फ़िल्म में कई बड़ी तकनीकि चूक भी है। यूपीए वन के दौरान सदन में हंगामा और मनमोहन को दस दिन तक न बोलने देने के समय स्पीकर की आवाज़ के तौर पर सुमित्रा महाजन की आवाज़ सुनाई देती है। जबकि उस समय स्पीकर सोमनाथ चैटर्जी थे।

बारू ने मनमोहन के ख़िलाफ़ तमाम ‘साज़िशों’ का ब्योरा दिया है। अपने ख़िलाफ़ की ‘साज़िशों’ का भी। पर सुविधानुसार ‘उस AV रिकार्डिंग’ का ज़िक्र नहीं किया है जिसकी वजह से उनको हटाया गया। अरे भाई सच लिखने-बोलने का दावा करते हो तो पूरा सच लिखो और बोलो। बेशक उस रिकार्डिंग को झूठा कहो।

फ़िल्म देख कर लगा कि अगर मोदी बारू को अपना मीडिया एडवाइज़र बना लें और उसके बाद शाह के कहे मुताबिक़ चलें तो बारू को नई किताब और खेर को नया रोल मिल जाएगा।

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फ़िल्म के मुताबिक़ अगर बारू न होता तो मनमोहन अमेरिका से न्यूक्लिअर डील न कर पाते। बारू न होता तो वे अपना चश्मा भी नहीं पहन पाते। फ़िल्म के पात्रों की शक्ल नेताओं से मिलाए गए हैं पर बारु के कैरेक्टर को पूरा फ़िल्मी हीरो रखा गया है जो वाहियात लगता है।

इस फ़िल्म का नाम होना चाहिए था ‘मेंटल मीडिया एडवाइज़र’ जो हमेशा साज़िशों के सहारे ख़ुद को ऊपर रखने की कोशिश करता है। गठबंधन की मजबूरियों की पार्टी अध्यक्ष की बात को वह मनमोहन के अधिकारों पर सवाल की तरह पेश करता है। कहीं संतुलन नहीं।

फ़िल्म में एक सीक्वेंस है कि जब बारू की किताब एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं बिक रही होती है तो उसी समय PMO की तरफ़ से बयान आता है कि किताब बकवास है। फिर किताब धड़ाधड़ बिक जाती है। इस फ़िल्म को लेकर भी विवाद न होता तो किसी का ध्यान भी न खींचती। फ़िल्म काट पीट कर जोड़ी गई लगती है।

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