आदरणीय मोदीजी,

जब आपने अपनी 90 साल की मां को एटीएम की लाइन में खड़ा करवाया था, तभी मैं समझ गया था कि भारत माता को बॉर्डर पर खड़ा करवाने में आपको वक्त नहीं लगेगा। इस बार चुनाव भी तो बड़ा है। लेकिन मैं पूरी तरह आपके साथ हूं।

आपके नेतृत्व में देश ने बहुत तरक्की है। नये-नये स्टार्ट अप और बिजनेस मॉडल कामयाब हो रहे हैं। भावना करोड़ों लोगों की, खून सिपाहियों का और वोट किसी का, यह ऐसा ही एक बिजनेस मॉडल है। आखिर व्यापार खून में जो है।

युद्ध की परिस्थितियां थोपी गई हों या स्व-निर्मित हों, जनता को अपने सारे सवाल स्थगित करने पड़ते हैं। मेरे सवाल भी स्थगित हैं। आपके मंत्री मूर्खों की तरह दांत निकालकर पूरे देश में `हाउ इज़ जोश’ पूछते फिर रहे थे कि अचानक पुलवामा हो गया।

मैं यह नहीं पूछूंगा कि पुलवामा क्यों हुआ था? लिखित आग्रह के बावजूद सीआरपीएफ के जवानों को एयर लिफ्ट की अनुमति क्यों नहीं दी गई? जिस सुरक्षा में परिंदा भी पर नहीं मार सकता वहां 300 किलो आरडीएक्स कहां से आया, सुरक्षा में चूक की जिम्मेदारी किसकी थी? यह सारे सवाल बेमानी है। मेरे जैसे तमाम देशवासी सवाल भूलकर आपके साथ खड़े हैं।

लेकिन आप क्या कर रहे हैं? पुलवामा हमले के बाद जब विपक्षी नेताओं ने अपने सारे कार्यक्रम रद्ध कर दिये थे, तब आप फोटो शूट करवा रहे थे। देश को आश्वसान देने के बदले घूम-घूमकर आपने जनसभाओं में सिर्फ उन्माद भड़का रहे थे। आपने बदले की कार्रवाई की तब यह अंदाजा हो गया कि युद्ध की परिस्थितियां पैदा होंगी। फिर भी पूरे देश ने आपका समर्थन किया। लेकिन आपका रवैया?

पूरे देश को मन की बात सुनाने वाले प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करना ज़रूरी नहीं समझा। राजस्थान की जनसभा में जादूगर जैसी पोशाक पहनकर आप चुनावी सभा में प्रकट हुए जहां देश ने शहादत की मार्केटिंग का सबसे अश्लील चेहरा देखा। बैक ग्राउंड में शहीदों की तस्वीर और हाथ उठाये महानायक ने हुंकार भरी— देश को मिटने नहीं दूंगा।

मोदीजी जरा ये बताइये कि इस दुनिया में किसके बाप की औकात है कि भारत को मिटा सके? जब किसी की मिटाने की औकात नहीं है तो फिर कोई ऐसा पैदा हो सकता है, जिसे यह मुगालाता हो कि वह कृष्ण की गोवर्धन उठा लेगा और 130 करोड़ जनता उसके नीचे आ जाएगी?

आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निर्वाचित नेता हैं। जनता ने आपको यह मान दिया है, आप भी जनता की सम्मान करना सीखिये। इस देश में अब से पहले जितने भी युद्ध लड़े गये हैं, आज के मुकाबले बहुत खराब परिस्थियों में लड़े गये हैं।

भुखमरी से बेहाल देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने युद्ध के समय अपने घर में एक शाम चूल्हा जलाना बंद करवा दिया था। लेकिन उन्होने कभी यह दावा नहीं किया था कि उद्धारक बनकर देश को बचा रहे हैं। इंदिरा गांधी ने 1971 की लड़ाई में उस दौर में विजय प्राप्त की थी, जब अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्ति हमारे खिलाफ खड़ी थी। लेकिन क्या उन्हे कभी हाउ इज़ जोश पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

युद्ध एक बेहद संवेदनशील मुद्धा है। भले ही जीत कितनी बड़ी मिले लेकिन कीमत पूरा देश चुकाता है। ऐसे में राष्ट्रीय नेता से न्यूनतम मर्यादा और गंभीरता की अपेक्षा की जाती है। बमबारी के बाद आप अपने प्रशंसकों की भीड़ में कह रहे थे— आज दिन बहुत महत्वपूर्ण है। आपके युद्धोन्मादी चमचे ठहाके लगा रहे थे।

आप जवाब में कह रहे थे— दिन महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि आज सुबह मैंने गांधी शांति पुरस्कार दिया है। जवाब में भीड़ और जोर से हंस रही थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता को ऐसे गंभीर मौके पर इस तरह की मुहल्ला छाप हरकतें करना शोभा नहीं देता है।

यह ठीक है कि आपको अपने `पबजी’ वाले वोटरों से बहुत प्यार है। आपको जनता का मनोविज्ञान पढ़ना आता है। आशा करता हूं कि आप यह भी समझते होंगे कि युद्ध वीडियो गेम नहीं है। मूर्खों की तालियों पर मुदित होने के साथ खून से सना फाइटर पायलट अभिनंदन का चेहरा भी एक बार ज़रूर देखियेगा।

परिस्थितियां अब कुछ ऐसी हो चुकी हैं कि वापस लौटने की गुंजाइश अब कम दिखती है। इसलिए मैं पूरी तरह आपके साथ हूं। अपनी सैलरी के एक हिस्से से लेकर वॉर सेस तक जो कुछ देना होगा मैं देश के नाम पर दूंगा। आप निश्चिंत रहिये मैं यह भी नहीं पूछूंगा कि रात-दिन सैनिकों का नाम जपने वाली आपकी पार्टी ने कॉरपोरेट चंदे में मिले अरबों रुपये में कितना पैसा युद्ध के लिए दिया है।

(यह लेख पत्रकार और लेखक राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से लिया गया है)

 

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जिन आदिवासियों ने जंगलों को बचाया आज जंगल बचाने के नाम पर उन्हें ही उजाड़ा जा रहा है

 

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